वह उस दिन बहुत गुस्से में था मेस का खाना उसे फिर पसंद ऩही आया था। उसकी नाराजगी जितनी मेस कर्मचारियों से ऩहीथी उससे कही ज्यादा अपने साथी हौस्ट्लर्स से थी।
चिढ कर बडबडाता:
"- घर पर कभी ढंग का खाना मिला हो तभी तो समझेंगे अच्छा खाना क्या होता है?
सारा माहौल खराब कर रखा है।
जिन्दगी में कभी बिजली से वास्ता ऩही पडा होगा और यहाँ आते ही ऐसे दिखाते हैं जैसे बिना ए.सी.के कभी रहे ही ऩही।
हैण्ड -पम्प चलाते - चलाते हांथों की लकीरें घिंस गयीं, यहाँ घंटों शॉवर के नीचे खड़े रहते हैं।
लोटा - डिब्बा लेकर खेतों के चक्कर काटने वाले ये यहाँ आधा- आधा घंटा बाथरूम से बाहर निकलने का नाम ही ऩही लेते।
जीना मुश्किल कर दिया है इनलोगों ने। "
मैं चुप चाप उसकी बातें सुनता। चिढाने का मन करता पर फिर थोड़ी दया आती। अब इसमें उस बेचारे की क्या गलती जो ऐसे लोगों के साथ उसे रहना पडा। उसे थोड़े ही मालूम था की इतने नामी - गिरामी जगह पर ऐसे लोग भी पहुँच सकते हैं।
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Thursday, April 30, 2009
Wednesday, April 29, 2009
ऐसा कोई है....
ऐसा कोई है -
जिससे सभी प्यार करते हों?
जिससे कोई नफरत नही करता हो?
जिसकी कोई निंदा न करता हो?
ऐसा कोई नही है।
फिर क्यों परेशान होते हो, क्यों दुखी होते हो।
सबने मुखौटा पहन रखा है।
तुमने भी और तुम्हारे सामने खड़े दूसरे ने भी।
भूल जाओ की ऐसा कुछ है और सच में ऐसा कुछ है भी नही।
तुम्हारे आस- पास के लोग तुमसे लाख गुना अच्छे हैं।
उन्हें बोलना- बतियाना आता है।
सब कहने-सुनने की बातें हैं।
ठीक कहते हो।
हुंह।
जिससे सभी प्यार करते हों?
जिससे कोई नफरत नही करता हो?
जिसकी कोई निंदा न करता हो?
ऐसा कोई नही है।
फिर क्यों परेशान होते हो, क्यों दुखी होते हो।
सबने मुखौटा पहन रखा है।
तुमने भी और तुम्हारे सामने खड़े दूसरे ने भी।
भूल जाओ की ऐसा कुछ है और सच में ऐसा कुछ है भी नही।
तुम्हारे आस- पास के लोग तुमसे लाख गुना अच्छे हैं।
उन्हें बोलना- बतियाना आता है।
सब कहने-सुनने की बातें हैं।
ठीक कहते हो।
हुंह।
Tuesday, April 28, 2009
भूख सबको लगती है.....
भूख लगती है - सबको लगती है। खाना चाहिए - सबको खाना चाहिए।
४०० लोगों का खाना बनता है हमारे यहाँ हर रोज़। सुबह, दोपहर, शाम...इधर एक महीने से सात- आठ लोग और रहने लगे हैं। उन्हें तीनों टाइम बस इसी बात का इंतज़ार रहता है की कब ये ४०० लोग खा लें ताकि जो बचा हुआ है वो उन्हें मिल जाए। अक्सरमिलता है पर कभी नही भी मिलता। बहार खड़े होकर देखते रहते हैं। थोड़ा मुस्कुराएँगे तो थोड़ा नज़रें नीची कर लेंगे।
ऐसा तुम्हे क्या मालूम है जो दूसरो को नही मालूम??
४०० लोगों का खाना बनता है हमारे यहाँ हर रोज़। सुबह, दोपहर, शाम...इधर एक महीने से सात- आठ लोग और रहने लगे हैं। उन्हें तीनों टाइम बस इसी बात का इंतज़ार रहता है की कब ये ४०० लोग खा लें ताकि जो बचा हुआ है वो उन्हें मिल जाए। अक्सरमिलता है पर कभी नही भी मिलता। बहार खड़े होकर देखते रहते हैं। थोड़ा मुस्कुराएँगे तो थोड़ा नज़रें नीची कर लेंगे।
ऐसा तुम्हे क्या मालूम है जो दूसरो को नही मालूम??
Monday, April 27, 2009
मैं कौन हूँ.....
पुराने ब्लॉग से....
मैं दानको* का दिल हूँ , मैं अपने लोगों, अपने साथियों, अपने हमवतनों के प्यार में सराबोर जल रहा हूँ, चाहता हूँ अपनी रौशनी से इस घनघोर बियाबान में प्रकाश ही प्रकाश फैला दूँ और अन्धकार में भटकते, शत्रु से जान बचाकर भागते अपने साथियों को अभय रौशन संसार में पंहुचा दूँ .......................................................... पर इससे पहले कि कोई और बेरहम , एहसान फरामोश मुझे अपने पावों तले रौंदे, लाओ मैं ख़ुद को अपने ही पावों तले रौंद डालता हूँ ।
*रुसी लेखक मक्सिम गोर्की द्वारा रचित एक काल्पनिक पात्र।
मैं दानको* का दिल हूँ , मैं अपने लोगों, अपने साथियों, अपने हमवतनों के प्यार में सराबोर जल रहा हूँ, चाहता हूँ अपनी रौशनी से इस घनघोर बियाबान में प्रकाश ही प्रकाश फैला दूँ और अन्धकार में भटकते, शत्रु से जान बचाकर भागते अपने साथियों को अभय रौशन संसार में पंहुचा दूँ .......................................................... पर इससे पहले कि कोई और बेरहम , एहसान फरामोश मुझे अपने पावों तले रौंदे, लाओ मैं ख़ुद को अपने ही पावों तले रौंद डालता हूँ ।
*रुसी लेखक मक्सिम गोर्की द्वारा रचित एक काल्पनिक पात्र।
Friday, April 24, 2009
मैं कौन हूँ......
पुराने ब्लॉग से.....
मान लो की मैं खूंटे से बंधी एक गाय हूँ। चाहो तो मुझे पंडित को दान में दे दो या फिर कसाई को दाम में दे दो। अभी मैंने विरोध करना सीखा नही, फिर सीख भी कैसे सकती हूँ मुझे बोलना भी तो नही आता और लड़ना तो मेरे खून में ही नही ....
मान लो की मैं खूंटे से बंधी एक गाय हूँ। चाहो तो मुझे पंडित को दान में दे दो या फिर कसाई को दाम में दे दो। अभी मैंने विरोध करना सीखा नही, फिर सीख भी कैसे सकती हूँ मुझे बोलना भी तो नही आता और लड़ना तो मेरे खून में ही नही ....
Thursday, April 23, 2009
मैं कौन हूँ....
पुराने ब्लॉग से.....
"मैं रास्ते पर रेंगते हुए किसी बिलबिलाते केंचुए की तरह हूँ मुश्किल तो यह है की अपने ऊपर पड़ते पाँव या साइकिल के पहियोंको देख कर भी मैं असहाय उन्हें अपने से हो कर गुजरने देता हूँ क्यों की सांप की तरह तेज रेंग कर ना तो मैं झाडियों में छिप ही सकता हूँ और ना ही अपने बचाव में या गुस्से से ही सही फन उठा कर डरा या डस ही सकता हूँ। मैं रोज सैकडों की संख्या में मरता हूँ और हजारों की संख्या में फिर पैदा होकर उन्ही रास्तों पर बिलबिलाते हुए रेंगता हूँ ।"
"मैं रास्ते पर रेंगते हुए किसी बिलबिलाते केंचुए की तरह हूँ मुश्किल तो यह है की अपने ऊपर पड़ते पाँव या साइकिल के पहियोंको देख कर भी मैं असहाय उन्हें अपने से हो कर गुजरने देता हूँ क्यों की सांप की तरह तेज रेंग कर ना तो मैं झाडियों में छिप ही सकता हूँ और ना ही अपने बचाव में या गुस्से से ही सही फन उठा कर डरा या डस ही सकता हूँ। मैं रोज सैकडों की संख्या में मरता हूँ और हजारों की संख्या में फिर पैदा होकर उन्ही रास्तों पर बिलबिलाते हुए रेंगता हूँ ।"
Friday, April 17, 2009
क्या करूँ???
पिछले दो दिनों से दिमाग ठप्प पड़ा है। बार बार नए संकल्प लेकर बैठता हूँ पर विचारों को क्रमबद्ध करने में असमर्थ ही रहता हूँ। चुनी हुई कहानियों के विषय में कोई आलोचनात्मक साहित्य नही मिल रहा। आज का दिन भी ख़त्म होने को है और बात बनती नज़र नही आती। कभी - कभी ऐसी dead-lock की स्थिति बन जाती है। अब देखें कब तक इस से उबार पता हूँ।
Thursday, April 16, 2009
पता नही क्या होगा.....
यह पोस्ट मैंने अपने पुराने ब्लॉग पर लिखा था। इसे एक बार फिर इस ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ...
वो रात को बारह बजे के आस पास आया होगा। हम बस सोने ही जा रहे थे। दरवाज़ा खटखटाया....छूटते ही बोला:
गरीबी की कोई परिभाषा है, तो प्लीज मुझे बताइए, इस ज़माने में कौन गरीब है, आदमी की गरीबी का कोई पैमाना है, कोई मापदंडहै? आखिर कोई तो वास्तव में गरीब होगा, आख़िर उस तक हम पहुचेंगे कैसे यहाँ तो जिसको देखिये वही गरीबी का ही रोना रोतारहता है। गरीब होना जैसे फैशन हो गया है।
अब कल तो हद हो गई
मैं रास्ते से जा रहा था कि कुत्ते भौकने लगे मेरे ऊपर से पास खड़ा आदमी कहता है 'अरे छोड़ दे रे! इस बेचारे गरीब पर क्योंभौकता है'। उसने मुझे क्यों गरीब बोला, जान न पहचान, अच्छा भला पहनता-खाता हूँ और मैं भी गरीब हो गया और वो भी कुत्ते केसामने .........
उसके सवालों के जवाब हमारे पास नही थे सो हमने वही घिषी-पीटी बातें की : पता नही क्या होगा इस ज़माने का और ऐसी ही दोचार रटे-रटाए जुमले जो इस तरह के मौको पर बोलने चाहिए। नींद बहुत जोरों की आ रही थी और सुबह जल्दी उठाना भी था।
वो रात को बारह बजे के आस पास आया होगा। हम बस सोने ही जा रहे थे। दरवाज़ा खटखटाया....छूटते ही बोला:
गरीबी की कोई परिभाषा है, तो प्लीज मुझे बताइए, इस ज़माने में कौन गरीब है, आदमी की गरीबी का कोई पैमाना है, कोई मापदंडहै? आखिर कोई तो वास्तव में गरीब होगा, आख़िर उस तक हम पहुचेंगे कैसे यहाँ तो जिसको देखिये वही गरीबी का ही रोना रोतारहता है। गरीब होना जैसे फैशन हो गया है।
अब कल तो हद हो गई
मैं रास्ते से जा रहा था कि कुत्ते भौकने लगे मेरे ऊपर से पास खड़ा आदमी कहता है 'अरे छोड़ दे रे! इस बेचारे गरीब पर क्योंभौकता है'। उसने मुझे क्यों गरीब बोला, जान न पहचान, अच्छा भला पहनता-खाता हूँ और मैं भी गरीब हो गया और वो भी कुत्ते केसामने .........
उसके सवालों के जवाब हमारे पास नही थे सो हमने वही घिषी-पीटी बातें की : पता नही क्या होगा इस ज़माने का और ऐसी ही दोचार रटे-रटाए जुमले जो इस तरह के मौको पर बोलने चाहिए। नींद बहुत जोरों की आ रही थी और सुबह जल्दी उठाना भी था।
Monday, April 13, 2009
शब्दों का रहस्य...
शब्द रहस्यों से भरे हैं। वाक्यों का तो कहना ही क्या। कांटेक्स्ट बदलते ही अर्थ बदल जाता है । और एक - एक कहानी अपने आप में पूरा संसार है.
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