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Friday, August 17, 2012

आखिर किसके लिए ?


जीते चले जाते हैं हम
दिन, महीनों, साल
या फिर कभी-कभी
सदियों तक
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
एक अदद मायने की
तालाश पूरी नहीं होती
दिन, महीने, साल
या फिर कभी-कभी
सदी गुजर जाती है
आखिर किसके लिए ?
ये रोज सुबह का उठना
खाना-पीना, नहाना-धोना,
चलना-फिरना, जोड़ना-घटाना
और फिर सो जाना
अध खुली पलकों की
 परायी नींद
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
दिन, महीने, साल
या फिर कभी-कभी
सदी गुजर जाती है
आखिर किसके लिए ?
ये हँसना-रोना,
मचलना-सुलगना,
मानना-मनाना,
और फिर रुठ जाना
अधर में रुकी साँसों की
परायी जिंदगी
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
दिन, महीने, साल
या फिर कभी-कभी
सदी गुजर जाती है.


काम चाहिए

काम चाहिए.
पैसा चाहिए.
और कोई विकल्प नहीं.
अगर यहाँ टिके रहना है तो
काम चाहिए.
पैसा चाहिए.
दिन-रात यही दो वाक्य.
दिवारों पर,
गलियों, चौराहों, बसों,
ऑटो-रिक्शे पर
बैनरों, पोस्टरों, अखबारों पर
बस यही दो वाक्य।
काम चाहिए.
पैसा चाहिए.



Tuesday, August 14, 2012

मेरा गाँव-मेरा घर


याद करता हूँ तो दर्द होता है। सत्रहवाँ साल चल रहा था, जब बसंत की एक भोर, घर छोड़ कर जाना पड़ा था। मैं भी खेलना-कूदना चाहता था। नंगे पाँव चिकने काँच की तरह चमकती बर्फ पर फिसलना चाहता था पर इसकी जगह अथाह अनजान जीवन की ओर जाना पड़ा जहाँ कोई रिस्तेदार तो दूर जानने-पहचानने वाला भी नहीं था। उदास था और थोड़ा भयभीत। माँ गाँव से बाहर तक छोड़ने आई थी। रास्ते को प्रणाम कर धरती पर बैठ गई और रोने लगी थी। मैं जानता था कि वह दुखी थी और भयभीत भी पर एक माँ के लिए अपने भूखे बच्चों को देखना इससे ज्यादा दुखदायक और भयानक होता है। बहन वहीं रह गई, वह अभी छोटी थी। जबकि मैं जा सकता था सो चला गया। -रुसी लेखक वसीली मकारविच शुक्शीन की जीवनी से।