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Sunday, May 10, 2015

मेरी माँ

मड़ईया हमारी चू रही है
गईया भींग रही है
खेत हमारे मू रहे हैं
बालियाँ गिर रहीं हैं
और
वो अकेली
घूम रही है घर-घर
जाने-मजुरों से गुहार लगा रही है
छा दो हमारी मड़ई
गईया भींग रही है
काट दो हमारे खेत
बालियाँ गिर रहीं हैं
आँखें भर आती हैं
दिल रोता है
क्योंकि
ये तीनों
माँ हैं - मेरी माँ

-कुँवर कान्त




Saturday, April 11, 2015

अश्वत्थामा का र्दद

किससे कहूँ
इन दो आँखों के बीच का दर्द
रिसता है
इससे खून गलीज सूर्ख
एक पाप है सदियों पुराना
जिसको छिपाये फिरता हूँ
एक श्राप है युगों पुराना
जिसे भोगता फिरता हूँ
एक घाव है वर्षों पुराना
जिसे ढोए फिरता हूँ


Sunday, April 5, 2015

दूध वाला


वो मेरे सामने चला आ रहा था
हाथ में पकड़ी कापी में
सिर नीचे गड़ाए
कंधे से तिरछा
बैग लटकाए।
बड़ा पढ़ाकु लगता है...
हम एक-दूसरे के बगल से गुजरे
अचानक लगा
जैसे पहचान का लगता है
मै पीछे मुड़ा
वह भी मुड़ा
अरे  ये तो अपना
दरवाजो पर घंटियाँ बजाता हुआ
हैडलों मे टंगी थैलियों,
पॉलिथिनों में
नीली, लाल, हरी
टोन्ड, डबल टोन्ड
फुल क्रीम पैकेटें डालता हुआ
बिल्डिंग की सिढ़ियों पर
उछलता भागता हुआ
बब्लु है
दुध वाला

-कुँवर कान्त


Saturday, April 4, 2015

कैसे लिखुँ...


कैसे लिखुं शब्दों में उस दर्द को
नम आँखें
काँपते होंठ
सुन्न होता शरीर
आँखों के आगे छाता
घोर अंधकार
लिख तो दिया
पर लिखा नही
आँखों का पानी
होंठों की जुबानी
शरीर से परे
आजाद होने को छटपटाता
स्याह आकाश
कैसे लिखुं शब्दों में इस हर्ष को
पथरीली आँखें
जर्द होंठ
अकड़ा हुआ शरीर
पर्दे के पीछे छाता
झीना प्रकाश

- कुँवर कान्त


Monday, March 30, 2015

रुसी कवि कन्सतान्तिन बालमन्त की कविता



शिवानी को उसके जन्मदिन पर सप्रेम भेंट...


मोहब्बत करता हूँ तुमसे, समंदर, आसमान और अपने गाने की कला से अधिक

मोहब्बत करता हूँ तुमसे, जितने दिन मिले हैं मुझे इस धरती पर उससे अधिक

तुम अकेली मुझे रौशन करती हो, जैसे सितारा कोई शांत सुदूर में
तुम वो जलयान हो जो नही डूबता, न सपने में, न लहरों में, न अंधेरों में

मैं प्रेम कर बैठा तुमसे अचानक, पल में, बस यूँ ही

मैने तुम्हे देखा – जैसे अँधे की फैल जाएंगी अचानक आँखें 
और दृष्टि पाकर, अचंभित होगा, कि इस दुनिया में सब कैसे गुत्थम गुत्था हैं
कि बेपनाह नीचे की ओर, पन्ने में, बह रहा है फिरोजा

याद है मुझे। किताब खोल कर, तुम धीरे-धीरे पन्नों को सरसरा रही थी

मैने पूछा: बर्फ का हृदय में अपवर्तित होना ठीक तो है?”
तुम चमकी मेरी ओर, पल में पुतलियाँ तुम्हारी नरम पड़ गईं
मोहब्बत करता हूँ – और यह मोहब्बत गाता है – मोहब्बत के बारे में – मोहब्बत के लिए

मूल - कन्सतांतिन बाल्मन्त
अनुवाद - कुँवर कान्त

Wednesday, March 25, 2015

वेरा का पहला स्वप्न...

Photo Courtesy:flowers-kid.com
वेरा पावलवना 19वीं सदी के रुसी साहित्यकार निकलाई चेर्निशेफ्स्की की रचना "क्या किया जाए?" की मुख्य पात्रों में से एक है।
वेरा का पहला स्वप्न
वेरा सपना देखती है।
वह सपने में देखती है, कि वह सीलन भरे, अंधेरे तहखाने में बंद है। कि अचानक दरवाजा गायब हो जाता है और वेरा खुद को खेत में पाती है, वह दौड़ रही है, कूद रही है और सोचती है: "ऐसा कैसे हुआ कि मैं उस तहखाने में मर नहीं गई?" - "ऐसा इसलिए हुआ कि मैने खेत कभी देखे नहीं थे; अगर मैने देखे होते, तो तहखाने में मर ही गई होती"- और वह फिर दौड़ रही है, कूद रही है। वह सपने में देखती है कि उसके पैर लकवा ग्रस्त हैं और वह सोचती है:
" मैं लकवा ग्रस्त कैसे हो गई ये तो बुढ़ों, बुढ़ियों को होता है, जवान लड़कियों को तो बिल्कुल नहीं"।
"होता है,  अक्सर होता है" - किसी की अनजान आवाज सुनाई देती है,  - "और तुम अब स्वस्थ हो जाओगी, ये देखो मेरे हाथों के स्पर्श से, - देख रही हो, तुम स्वस्थ हो गई,- चलो उठो"
- "कौन बोल रहा है? - और कितना हल्का महसूस कर रही हूँ - सारी बिमारी जैसे छु मंतर हो गई" - और वेरा उठ खड़ी हुई, वह चल रही है, दौड़ी रही है, एक बार फिर खेत में , एक बार फिर कूद रही है, दौड़ रही है, और फिर सोचती है, "यह कैसे हुआ कि मैं लकवे को सह पाई - ऐसा इसलिए कि मैं पैदा ही लकवा ग्रस्त हुई थी, जानती ही नहीं थी कि चलते कैसे हैँ, दौड़ते कैसे हैं अगर जानती होती तो नहीं सह पाती।"  और भागती है, कूदती है।  देखो तो खेत में चली जा रही है लड़की - कितनी अजीब बात है - और चेहरा, और चाल, सब बदलता जा रहा है, उसके भीतर अनवरत सब बदलता जा रहा है - देखो वो अंग्रेजन हो गई, देखो फ्रांसिसी, देखो तो वो अब जर्मन हो गई, पोलीश, वो अब रुसी हो गई, फिर अंग्रेजन, फिर जर्मन, फिर रुसी - ऐसा कैसे है कि उसका चेहरा एक ही है? और फिर अंग्रेजन और फ्रांसीसी एक जैसी तो नही होतीं, जर्मन रुसी जैसी नहीं होती, और उसका चेहरा बदल  भी रहा है, और फिर भी चेहरा एक ही है - कितनी अजीब बात है और चेहरे के भाव भी अनवरत बदल रहे हैं: कैसी मासूम है! कैसी गुस्सैल! वो देखो दुखी, वो देखो खुश, - सब बदलता जा रहा है! कैसी दयालु, - ऐसा कैसे है कि जब वह गुस्से में है तो ऐसी दयालु दिख रही है? पर इतना ही नहीं, कितनी खुबशूरत है यह! चेहरा चाहे कितना ही बदल जाए, हर बदलाव के साथ और सुन्दर, और सुन्दर। वह वेरा के समीप जाती है - "तुम कौन हो?" - " वह पहले मुझे वेरा पावलवना कहता था, और अब कहता है: मेरी दोस्त" - "अच्छा तो ये तुम हो, वही वेरा, जो मुझसे प्रेम करती थी?" - " हाँ, मैं आपको दिलो-जान से चाहती हूँ। पर आप हैं कौन?" - "मैं तुम्हारे मंगेतर की मंगेतर हूँ।" - "किस मंगेतर की?" - "मुझे मालूम नहीं। मैं अपने मंगेतरों को नहीं जानती। वो मुझे जानते हैं, मैं उन्हे जान ही नहीं सकती: वो ढेर सारे हैं। तुम अपने लिए, अपने लिए किसी एक को अपना मंगेतर चुन लो, सिर्फ उनमें से ही, मेरे मंगेतरों में से किसी एक को"। - "मैने चुन लिया है..." - "मुझे नाम से कुछ नही लेना, मैं उनके नाम नही जानती। सिर्फ उनमें से ही, मेरे मंगेतरों में से। मैं चाहती हूँ कि मेरी बहने और मेरे मंगेतर सिर्फ एक दूसरे को चुने। तो क्या तुम तहखाने में बंद थी? क्या तुम लकवा ग्रस्त थी?" - "थी" - "अब ठीक हो गई?" - "हाँ"। - "ये मैने तुम्हे आजाद किया है, मैने तुम्हारा इलाज किया है। याद रखना और बहुत सारी कैद हैं, रोगी हैं। उन्हे आजाद करो, उनका इलाज करो। करोगी न?" - "करुँगी। तुम सिर्फ अपना नाम बता दो? मैं व्याकुल हूँ जानने के लिए"। - "मेरे बहुत सारे नाम हैं। मेरे तरह-तरह के नाम हैं। जो मुझे जैसे नाम से जानना चाहता है, उसे मैं वैसा ही नाम बताती हूँ। तुम मुझे लोगों का प्यार कह सकती हो। यही मेरा सच्चा नाम है। कुछ मुझे इसी नाम से बुलाते हैं। तुम भी मुझे इसी नाम से पुकारो"। - वेरा अब शहर भर में घूम रही है:वो देखो तहखाना,- तहखाने में लड़कियाँ बंद हैं। वेरा ने ताले को छुआ है, - ताला जैसे छु मंतर हो गया: "जाइए आप सब" - वो सब बाहर निकल आती हैं। वो रहा कमरा, - कमरे में लकवा ग्रस्त लड़कियाँ लेटी हैं: "उठ जाइए आप सब" - वे उठ खड़ी होती हैं, चलने लगती है, वो सब एक बार फिर खेत में हैं, दौड़ रही हैं कूद रही हैं, - आहा, कितनी खुश हूँ मैं! अकेले की अपेक्षा इन सब के साथ मैं और अधिक खुश हूँ! आहा, कितनी खुश हूँ मैं!

जिनाइदा गीप्पिउस की कविता "Счастье"


Gippius 1910s.jpg
Zinaida Nikolaevna Gippius
November 20, 1869 - September 9, 1945


सौभाग्य
है सौभाग्य ये हमारा, विश्वास किजिए,
और सब इसे जानते हैं।
सौभाग्य, कि हम मृत्यु को
फौरन भूल जाने की कला जानते हैं।
न बुद्धि से, न झूठी-बहादुरी से।
(अगर जानते हो, - भजते रहो)
पर मन से, खून से, तन से
नही याद करते हम उसे।
ओह, सौभाग्य जो है क्षणभंगुर, क्षीण:
वो शब्द है, जैसे पंक्तियों के बीच;
आँखें बीमार ब्च्चे की;
गला हुआ फूल पानी में, -
और कोई फुसफुसाता है: बहुत हुआ!”
और पुन: जहरीला हो गया खून,
और कुढ़ता है शिथिल पड़े हृदय में
छला हुआ प्रेम।
नहीं, अच्छा हो हममें से कोई इस संसार में
कोई भी न रहे।
रहें तो केवल जानवर, और बच्चे,
जो अनभिज्ञ हैं इन सब से।

मूल - जिनाइदा गिपिउस
अनवाद - कुँवर कान्त

Tuesday, March 24, 2015

शुक्शीन की कहानी "लफ्फाज"

...
...
...
तभी अँधेरे को चीर अलाव के पास प्रकट हुई एक महिला, पेत्का की माँ।
- क्या करुँ मैं तुम लोगों का?! -  वह चिल्लाई। - वहाँ मैं पागल हुई जा रही हूँ और ये यहाँ अलाव का मजा ले रहे हैँ। चलो घर...कितनी बार, पिताजी, मैने आपसे कहा है कि नदी के पास रात तक मत रुकिएगा। डर लगता है मुझे, आप समझते क्यों नही?
दद्दु पेत्का के साथ चुपचाप उठे और जाल समेटने लगे। माँ अलाव के पास खड़ी थी और उन्हे देख रही थी।
- मछली कहाँ है? - माँ ने पूछा।
- क्या? - दद्दु को सुनाई नही दिया।
- पूछ रही है: मछली कहाँ है? - पेत्का ने जोर से कहा।
- मछली? - दद्दु ने पेत्का को देखा। - मछली पानी में है। और वो कहाँ रह सकती है।
माँ हँस पड़ी।
- अरे लफ्फाजों, - उसने कहा। - अगर एक बार और मुझे रात तक इंतजार करना पड़ा...बापु से शिकायत कर दुंगी, तो खुद ही समझना। वो तुम लोगों से फिर दुसरे तरीके से बात करेगा।
दद्दु ने कोई प्रतिक्रिया नही की। कंधे पर भारी जाल फेंका और पगडंडी पर सबसे पहले चल पड़ा, माँ उसके पीछे। पेत्का ने अलाव बुझाई और भाग कर उनके पास पहुँच गया।
चुप-चाप चले जा रहे थे।
नदी शोर मचा रही थी। पॉप्लर के वृक्षों में हवा गुँजायमान थी।

Sunday, March 22, 2015

शुक्शीन की कहानी "लेNका" से साभार...


...
...
सिनेमा देख कर वे एक साथ चले बिल्कुल खामोश।
लेन्का इस खोमोशी से संतुष्ट था। उसको बोलने का जी नही कर रहा था। और हाँ, तमारा के साथ चलने को भी जी नही कर रहा था। जी कर रहा था अकेला हो जाने को।
- इतने उदास क्यो हो? - तमारा ने पुछा।
- ऐसे ही। - लेनका ने हाथ छुड़ा लिया और सिगरेट पीने लगा।
अचानक तमारा ने उसको बगल से जोर का धक्का दिया और दौड़ पड़ी।
- पकड़ो!
लेनका थोड़ी  देर तक उसकी जुतियों की भागती हूुई खट-खट सुनता रहा, फिर वह भी दौड़ पड़ा। दौड़ते हुए वह सोच रहा था: "यह तो बिल्कुल...आखिर ऐसी क्यों है यह?"
तमारा रुक गई। मुस्कुराते हुए जोर-जोर से गहरी साँसे भरती हुई।
- क्या हुआ? नही पकड़ पाए!
लेनका ने उसकी आँखों को देखा। सिर नीचे झुका लिया।
- तमारा, - उसने नीचे देखते हुए, धीमे से कहा, - मैं अब और तुम्हारे पास नही आउंगा... बोझ सा लगता है पता नही क्यों। नाराज मत होना।
तमारा देर तक चुप रही। लेनका के पार वह आसमान की सफेद क्षितिज को निहार रही थी। आँखों में नाराजगी साफ झलक रही थी।
- कोई जरुरत भी नही है, - आखिरकार सर्द आवाज में उसने कहा। और थकी सी मुस्कुराई। - सोचते हो... - उसने उसकी आँखों में देखते अजीब ढंग से आँखें तरेरी। - सोचते हो। - मुड़ी और दुसरी दिशा में चल पड़ी, अस्फाल्ट की सड़क पर जुतियों की ठक-ठक करते हुए।
लेनका सिगरेट पी रहा था...वह भी दूसरी दिशा में चल पड़ा, हॉस्टल की ओर।
सीने में खाली-खाली सा सर्द अहसास लिए। वह दुखी था। बहुत ज्यादा दुखी।

Wednesday, February 11, 2015

अमन के दूसरे जन्मदिन पर...

                             बाजार

युनिवर्सिटी से बाहर निकलते ही सामने बाजार की भीड़ देखी तो याद आया कि आज सोमवार है। एक सरसरी नजर डालता मैं आगे बढ़ा जा रहा था। मुझे लगा ये बाजार तो बिल्कुल मेले का रुप लेता जा रहा है।
तभी देखा सामने एक गुब्बारे वाला खड़ा था। उसने साईकिल पर गैस की टंकी बांध रखी थी। टंकी से बंधे रंग-बिरंगे गुब्बारे हवा में लहरा रहे थे। वो खुद मोबाइल पर बात करने में व्यस्त था। 
- का कहले ... अले बबुनिया, नम्स्ते कह तरे। खुब खुश रह। खाना खईलु।
बस इतना ही सुन सका मै और शायद इतना सुनना काफी था। दूरिया मिट चुकी थी और अगले ही पल उसी बाजर में हम दोनो एक दूसरे के भीतर समाए हुए थे।