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Saturday, April 11, 2015

अश्वत्थामा का र्दद

किससे कहूँ
इन दो आँखों के बीच का दर्द
रिसता है
इससे खून गलीज सूर्ख
एक पाप है सदियों पुराना
जिसको छिपाये फिरता हूँ
एक श्राप है युगों पुराना
जिसे भोगता फिरता हूँ
एक घाव है वर्षों पुराना
जिसे ढोए फिरता हूँ


Sunday, April 5, 2015

दूध वाला


वो मेरे सामने चला आ रहा था
हाथ में पकड़ी कापी में
सिर नीचे गड़ाए
कंधे से तिरछा
बैग लटकाए।
बड़ा पढ़ाकु लगता है...
हम एक-दूसरे के बगल से गुजरे
अचानक लगा
जैसे पहचान का लगता है
मै पीछे मुड़ा
वह भी मुड़ा
अरे  ये तो अपना
दरवाजो पर घंटियाँ बजाता हुआ
हैडलों मे टंगी थैलियों,
पॉलिथिनों में
नीली, लाल, हरी
टोन्ड, डबल टोन्ड
फुल क्रीम पैकेटें डालता हुआ
बिल्डिंग की सिढ़ियों पर
उछलता भागता हुआ
बब्लु है
दुध वाला

-कुँवर कान्त


Saturday, April 4, 2015

कैसे लिखुँ...


कैसे लिखुं शब्दों में उस दर्द को
नम आँखें
काँपते होंठ
सुन्न होता शरीर
आँखों के आगे छाता
घोर अंधकार
लिख तो दिया
पर लिखा नही
आँखों का पानी
होंठों की जुबानी
शरीर से परे
आजाद होने को छटपटाता
स्याह आकाश
कैसे लिखुं शब्दों में इस हर्ष को
पथरीली आँखें
जर्द होंठ
अकड़ा हुआ शरीर
पर्दे के पीछे छाता
झीना प्रकाश

- कुँवर कान्त