Translate this web page in your own language

Tuesday, March 30, 2010

आग

एक सिरा जल रहा है
उसका
पर आशचर्य कि दूसरा
बर्फ सा ठंडा पड़ा है
तीसरा, चौथा ....
जाने कितने सिरे हैं उसके
सब खामोश खड़े हैं
तमाशा देख रहे हैं
धु-धु कर जल रहा है
जाने कितने रंग की आग
निकल रही है उसके भीतर से
लाल, पीला, हरा, नारंगी, बैंगनी
बर्दास्त नहीं हो रहा
इतनी तेज है आंच
भीतर तक
सबकुछ झुलसाए जा रही है
पर आश्चर्य कि
दूसरे सिरे
अजीब से हैं, ठिठुर रहे है
कुछ गल रहा है उनमे
पीछे की तरफ
उपर से नीचे तक
वो आग ढुंढ रहे हैं
जलाने के लिए जलावन
ढुंढ रहे हैं
लकड़ी, कोयला, डीजल,
पेट्रोल....
सब कुछ बड़ा अजीब है
अरे मुर्खराज!
इतना भी नही समझते
पर्दा धीरे से हटाओ
आहट न होने पाए
वर्ना आग बुझ जाएगी
सपना टूट जाएगा

Friday, March 26, 2010

पिछले दो हफ्ते...

कुछ भी लिख नहीं पाया। पहले हफ्ते तो इंटरनेट की परेशानी रही। स्कूल मे काम चल रहे होने की वजह से कुछ तारे कट गईं और पूरे हफ्ते इंटरनेट नही रहा। आदत ऐसी पड़ी है इसकी कि दिन भर रिफ्रेश करता रहता था कि अब आ जाए पर नही रहा सो नही रहा। फिर पिछले हफ्ते संस्थान के विदेशी छात्रों को लेकर दिल्ली और आगरा के स्टडी टूर पर चला गया। वहां इतना वयस्त रहा कि इंटरनेट के विषय में सोचने की फुर्सत ही नहीं रही। पिछले 6 दिन सुबह 6 बजे से लेकर रात के 12 बजे तक दौड़-भाग में ही बीते। हां ताजमहल के संगमरमरी पत्थरों पर जो कुछ पल लेट कर बिताए वो याद रहेंगे। 
इस बीच आए चिठ्ठियों के जवाब समय पर न दे पाया इसका अफसोस है।

Friday, March 12, 2010

कैसे भूल जाउं...

कैसे भूल जाउं
कि
तपती दोपहरी में
कड़कड़ाती ठंड में
स्टेशन की पटरी पर
रास्तों चौराहों पर
वो जमीन पर रेंगते हैं 
उनके पांव नहीं हैं
उनके हांथ भी नहीं है
हां आंड़े तिरछे धड़ पर
टूटा-फूटा सिर जरुर है
कुछ बेसुध 
नालियों में पड़े हैं
कुछ उपर से नीचे तक
सड़ चुके है
और अजीब सी भाषा में
जाने क्या 
बड़बड़ाते रहते हैं
इनमें से कुछ कचरे 
की ढेरी में ही जीते हैं
और मरते हैं
कि वो ज़मीन पर रेंगने
वाले कीड़े नहीं 
मेरी तरह ही
इंसान हैं
पर भूल जाता हुँ
सब भूल जाता हुँ
कुछ याद नहीं रहता
आखिर क्यों
देर नहीं लगती मुझे
सुनामी, भुकंपों, दुर्घटनाओं
बिमारियों से 
दम तोड़ते इंसानों को भूलाने में?
क्या सिर्फ इसलिए कि
उनका मेरे "मैं" 
से कोई संबंध नहीं?
या फिर इसलिए कि 
पूरी उम्र गुजर जाती है
इस "मैं" की 
और संबंधों के
सही मायनों से
अंजान ही चला जाता है वो
हम सब को छोड़कर?

Wednesday, March 10, 2010

Русский Крyжок...

With every new meeting "Russian Circle" is becoming more and more interesting. Today three participants from Uzbekistan were invited to interact with the students learning Russian language. The idea of giving prize to the most regular students has started working. Students now voluntarily want to be present in the meeting. The Russian only restriction for interaction during conversations has also started showing positive results. Now students have started asking questions. Their initial hesitation while approaching the participants is slowly fading away. A few of them have made good friendship with Russian speaking participants. A simple fact that all the participant guests enjoy a respectable position in their respective countries is enough to understand that how in future these friendships will become an important asset for the students learning Russian language in our university.
  Today a retired professor of JNU Madam Kalpana Sahni was also present during the gathering. She was here to deliver a lecture on Mikhai Bulgakov. (She delivered the lecture in the morning which was equally interesting) Her presence made the gathering more interesting as she shared a few interesting incidents from her own life and encouraged the students to learn Russian well. 
   In the end I must add Да здраствует Русский Кружок.

Tuesday, March 9, 2010

अनगिनत सच...

मुकदमा बड़ा गंभीर है -
बताओ तो जरा फूल 
लाल थे कि सफेद ?
एक ने कहा लाल
दूसरे ने सफेद
दोनो को ही था 
अपनी आँखों पर 
पक्का यकीन
फैसला तो कब
का हो चुका
इतिहास के पन्नों
में दर्ज हो चुका
कसूरवार दोनों ही
न थे
पर इसका क्या करें
कि दोनों फरियादी
न देखना चाहते हैं
न सुनना
कि वो अब बहरे 
और अंधे हो चुके हैं
वो तो सिर्फ बोलना
चाहते है
चिल्लाना चाहते हैं
एक दूसरे को 
गलत साबित करना
चाहते हैं

Monday, March 8, 2010

सत्ता की लड़ाई...

जिनके पास सत्ता है
वो-
सब चोर हैं
बदमाश हैं
धोखेबाज हैं
भ्रष्टाचार में लिप्त हैं
जिनके पास नहीं है
वो -
सब साधु हैं
नेक हैं
इमानदार हैं
सदाचार ही उनका जीवन है
यही इस सत्ता की लड़ाई
का नियम है
कि 
वो कब वो 
बन जाते हैं
इसका पता खुद उनको
भी नहीं चलता
दुख इस बात का है
कि हर बार
इस दौरान
कुछ चंद हजार-लाख
इंसानी जिंदगियाँ
मिट्टी की ढेरी में
बदल जाती हैं
और मजा इस बात में
कि ये बदलाव 
शायद ही कभी स्थायी
हो पायेगा। 

Saturday, March 6, 2010

नारियल पानी

हर बार जब नारियल पानी पीता हूँ तो यही सोचता हूँ कि आखिर इस बन्द डिब्बे के अन्दर पानी आता कहाँ से है। सो आज इन्टरनेट खंगालने की सोची। कुछ खास हाथ नहीं आया हाँ नारियल पानी पीने के ढेर सारे फायदों का पता जरुर चला। 
पानी के अन्दर जाने का रहस्य उद्घाटित होना अभी बाकी है।

Wednesday, March 3, 2010

सबसे बड़ा आश्चर्य....

यक्ष ने पुछा
बोलो इस संसार का सबसे 
बड़ा आश्चर्य 
क्या है?
उसने कहा 
रोज सैकड़ों की संख्या
में हो रही मौतें
कड़वा ... ही सही पर
बनावटी नहीं
सैकड़ों की संख्या में
जलती दफन होती 
लाशें
भयावह सही पर
झूठी नहीं
तिस पर भी खुद को
अमर माने बैठा 
अफसोस करता और
हर बार विदा हो चुके
को बेचारे की संज्ञा देता 
इंसान...
भला इससे बड़ा
आश्चर्य 
और 
क्या हो सकता है?