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Monday, October 26, 2009

इतिहास की गवाही...


मैं परेशान है
कि कटघरे में आज
स्वयं इंसान है
मुकदमा प्राचीन है
पर कटघरे में आज 
सारे तमाशबीन है
शर्मशार दलील है
कि  कटघरे में आज
स्वयं वकील है

Saturday, October 24, 2009

कसक

भरी है इतनी कालीख,
लिख कलम कोई लेख
भरा है इतना कचरा
बहा दे कतरा कतरा
देख फैली है कैसी दुर्गंध
अरे अब तो रच कोई छंद

Thursday, October 22, 2009

गुरुदेव सांवरिया मेरे...

तुम्हरे रस भींगी ये अंखियाँ
तुम्हरे बिन बेमानी सखियाँ
तुम्हरे दरस तरसे ये अंखियाँ
तुम्हरे दिन तुम्हरी ये रतियाँ

Tuesday, October 20, 2009

दिवाली के पटाखे...

फोड़-फोड़ कर 
बन-बन, हाइड्रो, रौकेट, अनार
क्या बच्चे, क्या जवान
क्या गंवार और क्या होंशियार
सारे खड़ें हैं एक कतार
सारा गुस्सा सारी भड़ास
धुम-धड़ाम, भुस-भास
यह फूटा वह फूटा
इतना गुस्सा, इतनी भड़ास
लगा रखी थी कितनी आस
सब बेकार
ऐसा आया ये त्यौहार

Friday, October 16, 2009

टूट गया....

एक तार सा था बारीक, महीन
टूट गया।
एक दर्पण सा था निडर, सच्चा
टूट गया।
एक विश्वास सा था अडिग, अचल
वो भी टुट गया

Friday, October 9, 2009

खुशी की तालाश में...

"मेरी स्थिति ऐसे व्यक्ति की तरह है जिसका एक पाँव तो नांव में है और दुसरा किनारे पर और जिसे यह समझ नहीं आ रहा कि उसे नांव पर चढ़ आगे सफर पर जाना चाहिए या फिर उतरकर वापस चला जाना चाहिए।"  
उपरोक्त पंक्तियां रुसी साहित्यकार वसीली मकारोविच शुक्शिन की हैं। तब उनकी उम्र क़रीब चालीस वर्ष थी।


गाँव छोड़ा एक सुखद जीवन की आस में, सुविधासंपन्न जीवन की आस में। कड़ा परिश्रम किया, दर-दर की ठोकरें खाईं। पत्थर तोड़े, पंक्चर बनाए, बोझा ढोया और जाने क्या-क्या किया। पर परिश्रम रंग लाई, शहर की सबसे सफलतम वयक्तियों में से एक बन गए तुम। अब तुम्हारे पास सब कुछ था। दौलत, शोहरत, एक अच्छी पत्नी, दो प्यारी-प्यारी बच्चियां....लाखों चाहनें वाले। 


पर गांव के छुट जाने का उन्हें सदा अफसोस रहा। उनकी हर कृति ग्रामीण जनता की शहरों की ओर पलायन से संबंधित होती थी।