Translate this web page in your own language

Tuesday, October 18, 2011

अधूरे शौक...

बचपन में चित्रकारी का शौक था। खासकर कॉमिक्स के चरित्रों के चित्र बनाने का...नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा आदि...कभी कुछ प्राकृतिक दृश्य...कभी देवी-देवताओं के चित्र बनाए। मुख्यतः स्केच पेन या पेन्सिल से बनाया करता था। हमेशा सोचता था कि एक दिन वाटर-कलर खरीद कर ले आउंगा पर नहीं ला सका और जो बनाया वह भी तभी तक जब तक अपने जन्म-स्थान सिरका कोलियरी, झारखंड में रहा। 
अभी कुछ दिनों पहले बिग-बाजार में ऐसे ही घूमते वक्त वाटर-कलर पर नजर गई तो एक ड्रॉइंग-बुक के साथ खरीद लाया। अब पन्द्रह साल बाद एक बार फिर शुरु करते हैं उस बीच में छूटी यात्रा को, ताजा करते हैं पुरानी यादों को।

Friday, October 14, 2011

भूखा




आप धूर्त और मक्कार हैं

बिना किसी प्लानिंग के
युँ ही हैं निकल पड़ते
शहर की सड़कों पर
इधर-उधर सरकते हुए
मॉलों-अटारियों पर
छलकते-मचलते हुए
कइयों किलोमीटर
क्योंकि आज इतवार है,
तोड़े हैं पैसे
और आपके पास खाली समय भी है भरपूर

या फिर हो सकता है

किआप बेकार और बेरोजगार हैं
बिना किसी प्लानिंग के
युँ ही हैं निकल पड़ते
शहर की सड़कों पर
इधर-उधर झांकते हुए
रेहड़ी-पटरियों पर
बुझते-सुलगते हुए
दसियों किलोमीटर
क्योंकि आज जाने कौन सा वार है
थोड़े हैं पैसे
और आपके पास खाली कुसमय है भरपूर



Wednesday, October 12, 2011

बस आपके सहारे...







आचरण सुन्दर रहे कर्तव्य से विचलित न हों।
हम स्वयं अपने ही कर्मों से कभी शापित न हों।।
                                             - नमन्

Sunday, October 2, 2011

टिफिन बॉक्स

                                                                              I
यह एक अलिखित पैक्ट ही था कि जुनियर आगे की सीटों पर बैठते थे और सीनीयर पिछली सीटों की तरफ। हम आम-तौर पर आहिस्ते- आहिस्ते आपस में बातें करते थे और वे पीछे खूब शोर मचाते, हुल्लड़बाजी करते, आगे बैठी लड़कियों की तरफ कभी-कभी चौक फेंकते, आने-जाने वाले पैदल यात्रियों को चिढ़ाते और ऐसी ही तमाम शरारतें करते। ...हम चुप-चाप सीनीयर होने का इंतजार कर रहे थे।
- बाबु, भागो बस का समय हो गया है। टिफिन में पराठा-भुंजिया रख दिया है याद से खा लेना। ये अम्मा की आवाज़ थी और मैं भागा।
सच में ही बस स्टैंड पर खड़ी थी, थोड़ी और देर हो जाती तो छूट ही गई होती। आदत के मुताबिक मैं सीधा जाकर पिछली सीट पर बैठ गया।
कुछ दिनों बाद दिवाली थी और स्कूल में हर दिन कहीं न कहीं बच्चों द्वारा पटाखे फोड़े जा रहे थे। कभी पीछे स्टेडियम में, कभी कूड़े के ढेर में, कभी टॉयलेट्स में, असेम्बली के लिए बने स्टेज के नीचे, नई बन रही बिल्डिंग में और ऐसी ही तमाम जगहों पर जहाँ लोगों का आना-जाना कम था। स्कूल एड्मिनीस्ट्रेशन के साथ जैसे चोर-सिपाही का खेल चल रहा हो। देखते हैं कैसे पकड़ते हैं। पीटी वाले युपी सिंह सर, इंग्लीश के गुप्ता सर और साइंस के खान सर पूरे जोर-शोर से इन शरारती बच्चों को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। रोज सुबह प्रेयर के बाद पकड़े जाने पर स्ट्रीक्ट पनीशमेंट मिलने की चेतावनियां दी जा रहीं थीं पर धमाके जारी थे और कोई पकड़ में नहीं आ रहा था।
                                                                              II
असेम्बली में मैं प्रार्थना की मुद्रा में हाथ जोड़े लाइन में खड़ा था। पर जैसे मेरे आस-पास सारी दुनिया घूम रही थी। किसी तरह खुद को सम्भाले खड़ा था। बाँयी तरफ हमारी क्लास में चेकिंग चल रही थी।
देहु शिवा वर मोहि इहे।
शुभ करमन से कबहुँ न टरुँ।
सारे बच्चे सुर में गा रहे थे।
 - अब नहीं बचुंगा। अब तो पकड़ा ही जाउंगा। नाहक ही मैने हामी भर दी। ऐसी ही जाने कितनी बातें हथौड़े की तरह दिमाग पर टन-टन कर चोट कर रहीं थीं। करते करते राष्ट्र गान भी पार हो गया। कहीं कोई हो हल्ला नहीं। अब बच्चे लाइन से अपनी-अपनी क्लास की ओर जाने लगे। मेरी जान में जान आई।
-लगता है बच गया। उनकी नजर नही गई होगी। क्लास में पहुँचा तो देखा कि चेकिंग टीम क्लास में ही मौजूद थी। जैसे ही सारे बच्चे अन्दर आए अनाउन्समेंट हुआः
- अगर कोई कुछ लेकर आया है तो दे-दे। हम कुछ नहीं करेंगे। अगर चेकिंग के दौरान पकड़े गए तो बहुत पिटाई होगी।
ये कुछ क्या था। सबको मालूम था। मैने कनखियों से अपने दोस्तों की ओर देखा। उनके इशारे का मतलब मैने यही निकाला कि वो हिम्मत रखने को कह रहे हैं कि कुछ नहीं होगा। अभी सब ठीक हो जाएगा। मैने भी सोचा कि ये तो वही रटा-रटाया डायलॉग है जो आम-तौर से टीचर लोग बोलते ही रहते हैं। तो चुप-चाप सिर नीचे किए मैं बैठा रहा। तभी अचानक
-हाँ, तुम उठो। बैग लेकर इधर आओ।
-सर, मेरे पास कुछ नहीं है।
-अभी पता चल जाएगा।
और फिर बैग खोल कर उसे ज़मीन पर पलट दिया। मैं फटा-फट झुक कर अपने कॉपी-किताब चुनने लगा। टिफिन उठाई पर यह क्या...ये तो पुरा भरा हुआ था।
-टिफिन बॉक्स इधर दो।
-नहीं, इसमें कुछ नहीं है।
-दिखाओ तो सही।
और टिफिन-बॉक्स खोल कर पलट दिया। अगले ही पल हरी-हरी गोलियाँ जमीन पर कलाबाजियाँ खा रही थीं।
-मेरे नहीं हैं। अभी इतना ही कहा था कि मुक्कों और झापड़ों की जैसे बरसात चालू हो गई।
पकड़ कर बाहर ले आए। बाहर देखा तो पूरा स्कूल असेम्बली ग्राउंड में ही खड़ा था। अभी कुछ देर पहले लाइन लगाकर क्लास में जा रहे बच्चे हुजुम लगाकर तमाशा देखने बाहर खड़े थे।
थोड़ी ही देर में तमाशे की केन्द्र बिन्दु प्रार्थना के लिए बना स्टेज था।
मुझे बार-बार यह समझाया जा रहा था कि ये काम मैने नहीं किया है। जरुर किसी ने मुझे दिए हैं। अगर मैने उनके नाम बता दिए तो पिटाई बंद हो जाएगी। दस-पाँच मिनट जितना सह सकता था सहा और फिर हिम्मत छूट गई।
                                                                               III
आखिरकार वह हुआ जिसका सबको डर था। कहीं प्रिंसीपल, जिसे सारे लड़के काला केंकड़ा कह कर(KK) बुलाते थे, का बुलावा न आ जाए। पता नहीं ये सारे स्कूलों के प्रिंसीपल इतने खुंख्वार क्यों होते हैं।
-तुम सब लोगों को प्रिंसीपल साहब ने अपने चेम्बर में बुलाया है। - प्रिंसीपल के असिस्टेंट ने फरमान सुनाया।
-अब ये तो होना ही था।
-अबे, घर जाकर क्या बताएंगे।
-सारे कह रहे हैं कि हमें टीसी मिल जाएगी।
-स्कूल से नाम काट देंगे और रिजल्ट पर लाल स्याही से लिख देंगे कि इनको कोई अपने स्कूल में न रखे।
-अब गलती की है तो भुगतना तो पड़ेगा।
-कुछ नहीं होगा यार...दो-चार झापड़ और मारकर छोड़ देंगे।

कुछ देर के बाद हम सब प्रिंसीपल के ऑफिस में कान पकड़कर उठक-बैठक कर रहे थे और फिर कभी जीवन में ऐसी हरकत न करने की कसमें खा रहे थे।