यह पोस्ट मैंने अपने पुराने ब्लॉग पर लिखा था। इसे एक बार फिर इस ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ...
वो रात को बारह बजे के आस पास आया होगा। हम बस सोने ही जा रहे थे। दरवाज़ा खटखटाया....छूटते ही बोला:
गरीबी की कोई परिभाषा है, तो प्लीज मुझे बताइए, इस ज़माने में कौन गरीब है, आदमी की गरीबी का कोई पैमाना है, कोई मापदंडहै? आखिर कोई तो वास्तव में गरीब होगा, आख़िर उस तक हम पहुचेंगे कैसे यहाँ तो जिसको देखिये वही गरीबी का ही रोना रोतारहता है। गरीब होना जैसे फैशन हो गया है।
अब कल तो हद हो गई
मैं रास्ते से जा रहा था कि कुत्ते भौकने लगे मेरे ऊपर से पास खड़ा आदमी कहता है 'अरे छोड़ दे रे! इस बेचारे गरीब पर क्योंभौकता है'। उसने मुझे क्यों गरीब बोला, जान न पहचान, अच्छा भला पहनता-खाता हूँ और मैं भी गरीब हो गया और वो भी कुत्ते केसामने .........
उसके सवालों के जवाब हमारे पास नही थे सो हमने वही घिषी-पीटी बातें की : पता नही क्या होगा इस ज़माने का और ऐसी ही दोचार रटे-रटाए जुमले जो इस तरह के मौको पर बोलने चाहिए। नींद बहुत जोरों की आ रही थी और सुबह जल्दी उठाना भी था।
No comments:
Post a Comment