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Tuesday, March 30, 2010

आग

एक सिरा जल रहा है
उसका
पर आशचर्य कि दूसरा
बर्फ सा ठंडा पड़ा है
तीसरा, चौथा ....
जाने कितने सिरे हैं उसके
सब खामोश खड़े हैं
तमाशा देख रहे हैं
धु-धु कर जल रहा है
जाने कितने रंग की आग
निकल रही है उसके भीतर से
लाल, पीला, हरा, नारंगी, बैंगनी
बर्दास्त नहीं हो रहा
इतनी तेज है आंच
भीतर तक
सबकुछ झुलसाए जा रही है
पर आश्चर्य कि
दूसरे सिरे
अजीब से हैं, ठिठुर रहे है
कुछ गल रहा है उनमे
पीछे की तरफ
उपर से नीचे तक
वो आग ढुंढ रहे हैं
जलाने के लिए जलावन
ढुंढ रहे हैं
लकड़ी, कोयला, डीजल,
पेट्रोल....
सब कुछ बड़ा अजीब है
अरे मुर्खराज!
इतना भी नही समझते
पर्दा धीरे से हटाओ
आहट न होने पाए
वर्ना आग बुझ जाएगी
सपना टूट जाएगा

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