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Friday, March 12, 2010

कैसे भूल जाउं...

कैसे भूल जाउं
कि
तपती दोपहरी में
कड़कड़ाती ठंड में
स्टेशन की पटरी पर
रास्तों चौराहों पर
वो जमीन पर रेंगते हैं 
उनके पांव नहीं हैं
उनके हांथ भी नहीं है
हां आंड़े तिरछे धड़ पर
टूटा-फूटा सिर जरुर है
कुछ बेसुध 
नालियों में पड़े हैं
कुछ उपर से नीचे तक
सड़ चुके है
और अजीब सी भाषा में
जाने क्या 
बड़बड़ाते रहते हैं
इनमें से कुछ कचरे 
की ढेरी में ही जीते हैं
और मरते हैं
कि वो ज़मीन पर रेंगने
वाले कीड़े नहीं 
मेरी तरह ही
इंसान हैं
पर भूल जाता हुँ
सब भूल जाता हुँ
कुछ याद नहीं रहता
आखिर क्यों
देर नहीं लगती मुझे
सुनामी, भुकंपों, दुर्घटनाओं
बिमारियों से 
दम तोड़ते इंसानों को भूलाने में?
क्या सिर्फ इसलिए कि
उनका मेरे "मैं" 
से कोई संबंध नहीं?
या फिर इसलिए कि 
पूरी उम्र गुजर जाती है
इस "मैं" की 
और संबंधों के
सही मायनों से
अंजान ही चला जाता है वो
हम सब को छोड़कर?

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