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Sunday, March 22, 2015

शुक्शीन की कहानी "लेNका" से साभार...


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सिनेमा देख कर वे एक साथ चले बिल्कुल खामोश।
लेन्का इस खोमोशी से संतुष्ट था। उसको बोलने का जी नही कर रहा था। और हाँ, तमारा के साथ चलने को भी जी नही कर रहा था। जी कर रहा था अकेला हो जाने को।
- इतने उदास क्यो हो? - तमारा ने पुछा।
- ऐसे ही। - लेनका ने हाथ छुड़ा लिया और सिगरेट पीने लगा।
अचानक तमारा ने उसको बगल से जोर का धक्का दिया और दौड़ पड़ी।
- पकड़ो!
लेनका थोड़ी  देर तक उसकी जुतियों की भागती हूुई खट-खट सुनता रहा, फिर वह भी दौड़ पड़ा। दौड़ते हुए वह सोच रहा था: "यह तो बिल्कुल...आखिर ऐसी क्यों है यह?"
तमारा रुक गई। मुस्कुराते हुए जोर-जोर से गहरी साँसे भरती हुई।
- क्या हुआ? नही पकड़ पाए!
लेनका ने उसकी आँखों को देखा। सिर नीचे झुका लिया।
- तमारा, - उसने नीचे देखते हुए, धीमे से कहा, - मैं अब और तुम्हारे पास नही आउंगा... बोझ सा लगता है पता नही क्यों। नाराज मत होना।
तमारा देर तक चुप रही। लेनका के पार वह आसमान की सफेद क्षितिज को निहार रही थी। आँखों में नाराजगी साफ झलक रही थी।
- कोई जरुरत भी नही है, - आखिरकार सर्द आवाज में उसने कहा। और थकी सी मुस्कुराई। - सोचते हो... - उसने उसकी आँखों में देखते अजीब ढंग से आँखें तरेरी। - सोचते हो। - मुड़ी और दुसरी दिशा में चल पड़ी, अस्फाल्ट की सड़क पर जुतियों की ठक-ठक करते हुए।
लेनका सिगरेट पी रहा था...वह भी दूसरी दिशा में चल पड़ा, हॉस्टल की ओर।
सीने में खाली-खाली सा सर्द अहसास लिए। वह दुखी था। बहुत ज्यादा दुखी।

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