बाजार
युनिवर्सिटी से बाहर निकलते ही सामने बाजार की भीड़ देखी तो याद आया कि आज सोमवार है। एक सरसरी नजर डालता मैं आगे बढ़ा जा रहा था। मुझे लगा ये बाजार तो बिल्कुल मेले का रुप लेता जा रहा है।
तभी देखा सामने एक गुब्बारे वाला खड़ा था। उसने साईकिल पर गैस की टंकी बांध रखी थी। टंकी से बंधे रंग-बिरंगे गुब्बारे हवा में लहरा रहे थे। वो खुद मोबाइल पर बात करने में व्यस्त था।
- का कहले ... अले बबुनिया, नम्स्ते कह तरे। खुब खुश रह। खाना खईलु।
बस इतना ही सुन सका मै और शायद इतना सुनना काफी था। दूरिया मिट चुकी थी और अगले ही पल उसी बाजर में हम दोनो एक दूसरे के भीतर समाए हुए थे।
जब साहित्य अंगड़ाई लेता हैं तो संवेदना कुलाचे मारती हैं.....
ReplyDeleteमैं आपकी इन वन लाईनर्स का फैन बनता जा रहा हूँ।
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