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Saturday, April 10, 2010

दिवारें गिर रही हैं....



.......फिर अपनी हर वस्तु को बेध देने वाली इस दृष्टि की मदद से उसने दिवारो, समय और स्थान को सबको तहस-नहस कर दिया और छोड़े जा रहे जीवन के भीतर ही कही कुछ विस्तार से देखने लगा।
जीवन एक नए रुप मे सामने खड़ा था। वह पहले की तरह दिखाई देने वाली हर चीज को शब्दो मे बया कर देने की हड़बड़ी मे नही था, और इस , अपर्याप्त इंसानी भाषा मे ऐसे शब्द थे भी नही..........लोग भी उसे नए ही प्रतीत हो रहे थे। उसकी नई प्रबुद्ध दृष्टि मे सब उसे नए तरह से प्यारे और मनमोहक प्रतीत हो रहे थे। समय के उपर हवा मे तैरते हुए उसने साफ देखा कि मानव सभ्यता कितनी जवान है। अभी कल तक उसे लगता था कि सारे जंगली जानवर है जो जंगलो मे चिल्ला रहे है । अब तक जो लोगो के अंदर उसे डरावना लग रहा  था, अक्षम्य, विभत्स लग रहा था अचानक सब बड़ा प्यारा लगने लगा था – जैसे प्यारा लगता है किसी बच्चे का ठुमक-ठुमक कर चलना, उसका तुतलाना, उसकी हंसी दिलाने वाली छोटी-छोटी गल्तियां.....

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