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Thursday, August 23, 2012
Friday, August 17, 2012
आखिर किसके लिए ?
जीते चले जाते हैं हम
दिन, महीनों, साल
या फिर कभी-कभी
सदियों तक
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर
सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
एक अदद मायने की
तालाश
पूरी नहीं होती
दिन, महीने, साल
या फिर
कभी-कभी
सदी गुजर जाती है
आखिर किसके लिए ?
ये रोज सुबह का उठना
खाना-पीना, नहाना-धोना,
चलना-फिरना, जोड़ना-घटाना
और फिर सो जाना
अध खुली पलकों की
परायी नींद
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर
सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
दिन, महीने, साल
या फिर
कभी-कभी
सदी गुजर जाती है
आखिर किसके लिए ?
ये हँसना-रोना,
मचलना-सुलगना,
मानना-मनाना,
और फिर रुठ जाना
अधर में रुकी साँसों की
परायी जिंदगी
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर
सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
दिन, महीने, साल
या फिर
कभी-कभी
सदी गुजर जाती है.
काम चाहिए
काम चाहिए.
पैसा चाहिए.
और कोई विकल्प नहीं.
अगर यहाँ टिके रहना है तो
काम चाहिए.
पैसा चाहिए.
दिन-रात यही दो वाक्य.
दिवारों पर,
गलियों, चौराहों, बसों,
ऑटो-रिक्शे पर
बैनरों, पोस्टरों, अखबारों पर
बस यही दो वाक्य।
काम चाहिए.
पैसा चाहिए.
पैसा चाहिए.
और कोई विकल्प नहीं.
अगर यहाँ टिके रहना है तो
काम चाहिए.
पैसा चाहिए.
दिन-रात यही दो वाक्य.
दिवारों पर,
गलियों, चौराहों, बसों,
ऑटो-रिक्शे पर
बैनरों, पोस्टरों, अखबारों पर
बस यही दो वाक्य।
काम चाहिए.
पैसा चाहिए.
Tuesday, August 14, 2012
मेरा गाँव-मेरा घर
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