जीते चले जाते हैं हम
दिन, महीनों, साल
या फिर कभी-कभी
सदियों तक
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर
सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
एक अदद मायने की
तालाश
पूरी नहीं होती
दिन, महीने, साल
या फिर
कभी-कभी
सदी गुजर जाती है
आखिर किसके लिए ?
ये रोज सुबह का उठना
खाना-पीना, नहाना-धोना,
चलना-फिरना, जोड़ना-घटाना
और फिर सो जाना
अध खुली पलकों की
परायी नींद
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर
सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
दिन, महीने, साल
या फिर
कभी-कभी
सदी गुजर जाती है
आखिर किसके लिए ?
ये हँसना-रोना,
मचलना-सुलगना,
मानना-मनाना,
और फिर रुठ जाना
अधर में रुकी साँसों की
परायी जिंदगी
कि कुछ भी तो नहीं बदलता
या फिर
सब कुछ बदल जाता है
पर इससे क्या
दिन, महीने, साल
या फिर
कभी-कभी
सदी गुजर जाती है.
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