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Tuesday, August 14, 2012

मेरा गाँव-मेरा घर


याद करता हूँ तो दर्द होता है। सत्रहवाँ साल चल रहा था, जब बसंत की एक भोर, घर छोड़ कर जाना पड़ा था। मैं भी खेलना-कूदना चाहता था। नंगे पाँव चिकने काँच की तरह चमकती बर्फ पर फिसलना चाहता था पर इसकी जगह अथाह अनजान जीवन की ओर जाना पड़ा जहाँ कोई रिस्तेदार तो दूर जानने-पहचानने वाला भी नहीं था। उदास था और थोड़ा भयभीत। माँ गाँव से बाहर तक छोड़ने आई थी। रास्ते को प्रणाम कर धरती पर बैठ गई और रोने लगी थी। मैं जानता था कि वह दुखी थी और भयभीत भी पर एक माँ के लिए अपने भूखे बच्चों को देखना इससे ज्यादा दुखदायक और भयानक होता है। बहन वहीं रह गई, वह अभी छोटी थी। जबकि मैं जा सकता था सो चला गया। -रुसी लेखक वसीली मकारविच शुक्शीन की जीवनी से।

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