"मेरी स्थिति ऐसे व्यक्ति की तरह है जिसका एक पाँव तो नांव में है और दुसरा किनारे पर और जिसे यह समझ नहीं आ रहा कि उसे नांव पर चढ़ आगे सफर पर जाना चाहिए या फिर उतरकर वापस चला जाना चाहिए।"
उपरोक्त पंक्तियां रुसी साहित्यकार वसीली मकारोविच शुक्शिन की हैं। तब उनकी उम्र क़रीब चालीस वर्ष थी।
गाँव छोड़ा एक सुखद जीवन की आस में, सुविधासंपन्न जीवन की आस में। कड़ा परिश्रम किया, दर-दर की ठोकरें खाईं। पत्थर तोड़े, पंक्चर बनाए, बोझा ढोया और जाने क्या-क्या किया। पर परिश्रम रंग लाई, शहर की सबसे सफलतम वयक्तियों में से एक बन गए तुम। अब तुम्हारे पास सब कुछ था। दौलत, शोहरत, एक अच्छी पत्नी, दो प्यारी-प्यारी बच्चियां....लाखों चाहनें वाले।
पर गांव के छुट जाने का उन्हें सदा अफसोस रहा। उनकी हर कृति ग्रामीण जनता की शहरों की ओर पलायन से संबंधित होती थी।