जब जेएनयु में था तब वरयाम सर ने बहुत सारी किताबें मुझे उपहार स्वरुप दी थीं। उन्हीं में से एक - कबीर के दोहों का रुसी में अनुवादित संकलन था। यह अनुवाद मूल भाषा हिन्दी से रुसी भाषा में येलेना शराबचियेवा और अनिल जनविजय जी द्वारा किया गया है। इसी संकलन से एक दोहा और उसका रुसी अनुवाद उद्घृत कर रहा हूँ। प्रस्तुत दोहा आध्यात्मिक जगत के मार्ग पर अग्रसर साधक (जो यहाँ स्वयं कबीर हैं) के आध्यात्मिक अनुभवों पर आधारित है।
सर गगन गुफा में अजर झरे।
बिन बाजा झनकार उठे जहँ परे जब ध्यान धरे।
बिन ताल जँह कँवल फुलाने तेहि चढ़ि हंसा केलि करे।
बिन चंदा उजियारा दरसे जहां तहँ हंसा नजर परे।
दसबे द्वार तारि लागी अलख पुरुष जाके ध्यान धरे।
काल कराल निकट नहिं आवै, काम क्रोध मद लोभ जरे।
जुगन जुगन की तृष्णा बुझानी कर्म धर्म अध व्याधि टरे।
कहे कबीर सुनो भई साधो अमर होय कबहुं न मरे।
Нектарный дождь идёт все время
В той сфере неба, что от взора скрыта.
Без инструментов музыка прекрасная звучит.
Лотос цветет, но нет резервуара,
И лебеди вокруг резвятся.
Там нет луны,
Но залито все ярким лунным светом.
Когда Всевышний начинает думать о тебе,
Снимается замок с десятой двери, -
Ни смерть, ни страх приблизиться уже не могут,
Сгорает похоть, гнев, гордыня, жадность;
Жажда, что мучила на протяженье
Многих юг, утоленье получает;
Болезни все, и карма вся, джапа -
Все исчезает.
Говорит Кабир:
"Слушай, о садху!
Ты станешь бессмертным,
Ты никогда не умрёшь".
सर्व श्री आशुतोष जी महाराज के शिश्यत्व में आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हूँ और महाराज जी की कृपा से ही इस क्षेत्र की बारीकियों की जो थोड़ी-बहुत समझ मुझमें विकसित हूई है उसके आधार पर अनुवाद पर टिप्पाणि कर रहा हूँ।
अनुवाद पठनीयता के दृष्टिकोण से अच्छा है। पठनीयता बनाए रखने के उद्देश्य से ही रुसी में पंक्तियों की संख्या ज्यादा हो गई है जो उचित है। इसके बावजूद कुछ ऐसे बिन्दु हैं जहाँ सुधार की गुंजाइश है। जिन शब्दों को गुलाबी रंग से मार्क किया है उनका अनुवाद नहीं हुआ है और जिस पंक्ति को नीले रंग से चिन्हित किया है उसका अनुवाद संतोषजनक नहीं है। "सर" और "गुफा" ये दोनों ही शब्द बड़े ही महत्वपूर्ण हैं इन्हें किसी भी स्थिति में हटाया नहीं जाना चाहिए था। बिना किसी बाजे के झनकार तभी उठती है जब साधक ध्यान धरता है। अनुवाद में बाजे के बगैर झनकार तो है पर ध्यान का जिक्र कहीं नहीं है। मूल में हंस एक है पर अनुवाद में हंस कई हो गए हैं जो आधयात्म के अनुसार बिल्कुल गलत है। कबीर कहते हैं कि बिन चंदा के उजियारा तब होता है जब उस हंसा पर नजर पड़ती है जबकि अनुवाद में बिन चंदा के उजियारा तो है पर हंसा पर नजर पड़ने का बात गोल है। दसवें द्वार पर ताला लगे होने की बात कबीर कर रहे हैं, अलख पुरुष जिसका ध्यान करता है परन्तु अनुवाद में उस ताले के ईश्वर के द्वारा याद किए जाने पर खुल जाने का जिक्र करना अनुवादक की अपनी कल्पना है। अंतिम की तीन पंक्तियों का अनुवाद बिल्कुल परफेक्ट है।
भाई कुँवर कांत जी!
ReplyDeleteकविता का अनुवाद एक अत्यन्त दुरूह कार्य है। उस पर भी कबीर की कविता का अनुवाद करना। एक तो करेला और उस पर नीम चढ़ा। वैसे ही कठिन होता है अनुवाद करना, ऊपर से कबीर के दर्शन और अध्यात्म का अनुवाद।
यह अनुवाद करते हुए हमने पूरी-पूरी कोशिश की थी कि मूल के निकट रहा जाए। लेकिन फिर भी कुछ न कुछ छूट ही जाता है। बात सिर्फ़ अर्थछटा के अनुवाद की ही नहीं होती, बात कई अर्थों में से कोई एक अर्थ चुनने की भी होती है। फिर बात यह भी होती है कि अलग-अलग अनुवादक एक ही पंक्ति का क्या-क्या अलग-अलग अर्थ लगाते हैं। आध्यात्मिक और दार्शनिक साहित्य में तो ऐसा बहुत होता है। महाभारत का या महात्मा अरविन्द की कविताओं का जो अनुवाद हुआ है, उसमें भी ऐसे ही बहुत-कुछ छूट गया है।
मैं सफ़ाई नहीं दे रहा हूँ । मैं अनुवाद-कर्म पर चर्चा कर रहा हूँ । अनुवादक का काम दूसरी भाषा के पाठक को रचना के अधिकतम निकट पहुँचाने का होता है और हर अनुवादक जब फिर से उसी काव्य-रचना का दुबारा अनुवाद करता है, तब भी वह उसमें बहुत-कुछ बदल देता है।
अब मैं आपकी इस समीक्षा की बात करता हूँ। आपने यह कोशिश की, मैं धन्य हुआ। इसका मतलब है कि आपने उसे ध्यान से पढ़ा। यह भी अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। कृपया अन्य पदों के अनुवाद भी देखिएगा और लिखिएगा।
एक बात और । आम तौर पर अनुवाद शाब्दिक नहीं होता, बल्कि अर्थ का अनुवाद किया जाता है। इसलिए किसी शब्द पर अटक कर यह कहना कि इस शब्द का अनुवाद नहीं हुआ, उचित नहीं है।
आदरणीय अनिल सर,
ReplyDeleteअपने अनुजों को जो प्रेम और सम्मान आप देते हैं उसका कोई सानी नहीं। मॉस्को जैसे रफ्तार वाले शहर में दिन भर थके होने के बावजूद जिस प्रेम से आप मिले और जैसे फुर्सत से आपने मेरे साथ समय बिताय वह अपने आप में इस बात को साबित करने के लिए काफी है। रही बात उपरोक्त टिप्पणि की तो मैं आपसे बिल्कुल सहमत हूँ कि अनुवाद एक अत्यंत दुरुह कार्य है। कबीर, जिन्हे कि मूल में समझना इतना कठिन है तो अनुवाद का तो कहना ही क्या। हालांकि यह पूरा मसला सब्जेक्टिव हैपर शब्द पर अटकने की बात प्रासंगिक नहीं थी...मैं कुछ महत्वपूर्ण शब्दों के छूट जाने की बात कर रहा था जिनका अनुवाद नहीं हुआ है और मुझे शंका थी कि कहीं यह किसी लापरवाही का परिणाम तो नहीं...जिसकी अनुवादक को बिल्कुल छूट नहीं।