कभी-कभी हमें न चाहते हुए भी कुछ काम दुसरों का दिल रखनें के लिए या फिर सामाजिक औपचारिकताओं को बस निभा देनें के लिए करना पड़ता है। उदाहरण के लिए मान लिजिए हम बड़ी तेजी में कहीं जा रहें हों, हो सकता है कि मू़ड भी खराब हो कि तभी अचानक कोइ जान-पहचान वाला मिल जाए। चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान लिए आपकी ओर बढा चला आए। तो आप न चाहते हुए भी थोड़ा सा मुस्करायेंगे, दो मिनट के लिए रुक सकते हैं और फिर हंसते-हंसते विदा ले लेंगे। ऩाहक किसी पर अपनी तेजी या उलझन क्यों थोंपें - ऐसा आप मन ही मन सोचेंगे। उसकी परेशानी का ख्याल कर आप खुद थोड़ा कम्प्रोमाइज कर लेंगे।
ऐसा कभी आप करते हैं तो कभी आपके सामने वाला।
पर एक दूसरी तरह से भी हम व्यवहार करते हैं।
- मेरे काम में कोइ दखल न पड़नें पाए सामनें वाला जाए चुल्हे-भाड़ में। ऩहीं मानता मैं किसी सामाजिक औपचारिकता को, मैं तो इस औपचारिक समाज से ही तंग आ गया हुँ।
-बात आपकी भी ठीक है। इतनें तो जानने वाले, अगर मिलनें लगे तो सारा जीवन तो हाल-चाल पुछते ही निकल जाएगा।
वैसे भी काम दूसरे बड़े ज़रुरी करनें बाकी हैं सो जो छूट गया सो छूट गया जो साथ हैं उन्हें सम्भालना जरुरी है।
अब किस-किस का मन रखेंगे आप जब सारे अपने मन का ही करनें को आतुर हैं।
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