जाड़े की छुट्टियां समाप्त हो रहीं थीं और अब वापस काम पर हैदराबाद लौटने का समय था। हमारे यहाँ हैदराबाद के लिए सीधी ट्रेन एक ही हैः गोरखपुर-सिकंदराबाद, जिसमें टिकट नहीं मिल सका था। सो मैने गाँव से झांसी आने का और फिर वहाँ दिल्ली से आने वाली किसी ट्रेन से आगे हैदराबाद तक की यात्रा करने का फैसला किया। ठीक एक दिन पहले भटनी जाकर मैने बरौनी-ग्वालियर एक्सप्रेस में झांसी तक की सीट बुक करा ली। घर आकर बतायाः
- झांसी एक्सप्रेस में टिकट बुक कराया है। (जो बनकटा स्टेशन रात को एक बजे पहुँचती है)
सुन कर सारे परेशान कि इतनी रात को स्टेशन कैसे जाना होगा। स्टेशन हमारे गाँव से तीन किलोमिटर की दूरी पर है। दिसम्बर का महीना था और ठंड कड़ाके की पड़ ही रही थी।
पापा ने कहा - कोई बात नहीं मैं पहुँचा दुंगा।
पापा का ठंड में रात को बाहर जाना और फिर अकेले लौटना। मुझे यह बात जंच नहीं रही थी, कहीं कोई परेशानी हो जाए।
अम्मा तैयार हो गईं चलने के लिए।
दिन रहता तो दादा चल पड़ते पर रात को उनको दिखाई कम देता है सो वो कहीं निकलते ही नहीं। अब क्या हो? मैने फैसला किया, क्यों सबको परेशान किया जाय। सोचा - मैं ही शाम की किसी ट्रेन से सीवान या देवरिया चला जाता हूँ और वहाँ से ट्रेन पकड़ लुंगा। पर सच पुछिए तो मेरी इच्छा सीवान या देवरिया जाने की नहीं थी। ट्रेनों के लेट होने पर बनकटा से तो लौटा जा सकता था पर सिवान या देवरिया से नहीं। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि तभी हमारे रिस्तेदार पंचा भईया का फोन आया कि वो गन्ने से लदा ट्रेक्टर लेकर प्रतापपुर गन्ना मिल पर जा रहे हैं और रात को हमारे यहां आएंगे। तो इस तरह मेरे स्टेशन तक पहुंचने की परेशानी हल हुई। ये तय हुआ कि पंचा भईया अपनी मोटरसाइकल से मुझे स्टेशन तक छोड़ देंगे। ना ना कहते हुए भी अम्मा ने 15-20 सत्तु की लिट्टी और 30-40 खस्ता (खजुर) रास्ते के लिए बांध दिया।
पापा को जब मौका मिलता तो एक ही बात कहते, "इस ट्रेन का टाइम ठीक नहीं है बेकार ही इसमे टिकट लिया।"
अब उनको कौन समझाए, कोई शौकिया तो लिया नहीं है। आठ बजते-बजते हम सारी तैयारी कर खा-पीकर बिस्तर पर आ गए। सोचा थोड़ा सो लुंगा, फिर तो जगना ही है पर अम्मा से बात होती रही। पंचा भईया 9.00 बजे आ गए और वो भी आराम करने चले गए। 12.00 बजे हम उठे और फटा-फट तैयार हो गए। रात को जाने का एक फायदा हुआ कि अबकी बार अम्मा के आंसु नहीं दिखे। अब कोई कितना भी दिल कड़ा कर ले माँ की आँखों में आंसु देख मन भावुक तो हो ही जाता है। और ऐसे समय में हर बार मुझे रुसी लेखक शुक्शिन जरुर याद आते हैं। अपनी एक कहानी में उन्होने गाँव छोड़ शहर मे कमाने जा रहे बेटे से माँ के बिछोह का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। मुझे फिक्र इस बात की थी कि आधी रात को अंधेरे सुनसान स्टेशन पर ऐसी कड़कड़ाती ठंड में समय कैसे कटेगा। सोच रहा था स्टेशन मास्टर से रिक्वेस्ट कर उसके कमरे में घुस जाउंगा और जो उसने घुसने न दिया तो। इसी उधेड़बुन में हम स्टेशन पहुँच गए। पंचा भईया से मैने घर लौट जाने को कहा पर वे न माने कहा ,"चलो स्टेशन तक चलुंगा।" मैं शॉर्टकट से पैदल लाइन पार कर स्टेशन पर आ गया और वो ढाले की तरफ चले गए चुंकि रात को सुनसान में गाड़ी लाइन के इस तरफ छोड़ना ठीक न जान पड़ा। मैने स्टेशन पर पहुंचकर गाड़ी की पोजीशन पूछी तो गाड़ी साढ़े तीन घंटे लेट। लो जिसका डर था वही हुआ।
इधर हरे रामा हरे कृष्णा की धुन से वातावरण गुंजायमान था। स्टेशन के ठीक पीछे बने मंदिर पर अखण्ड कीर्तन का आयोजन पिछले कुछ दिनों से चल रहा था। मथुरा से कोई बाबा आए थे। उन्हींके देख रेख में कार्यक्रम का आयोजन हुआ था। अभी दो दिन पहले ही अफवाह उड़ी थी कि बाबा चंदा का पैसा लेकर भाग गए और आयोजक उनको तालाश रहे हैं पर यहां ऐसा कुछ नहीं था। कीर्तन मध्य रात्रि में भी अपने जोर पर था। ट्रेन तो लेट थी ही तथा अंधेरे और ठंड में स्टेशन की बेंच पर बैठने का कोई मतलब नहीं था सो कीर्तन स्थल की ओर अनायास ही पैर बढ़ गए। वहां जेनरेटर चल रहा था और मरकरी(ट़युब लाइट) और बल्ब रौशन थे। पास में एक बड़े पेंड़ का तना अलाव के रुप में जल रहा था सो गर्मी भी थी। कुर्सिया अलाव के आस-पास रखीं थीं। एक कुर्सी पर एक साहब बैठे थे जो आयोजकों में से एक जान पड़ते थे। अलाव के समीप ही एक जने लम्बे पड़े थे जो पता चला कीर्तन मंडली के सदस्य थे और अपनी बारी आने तक आराम फरमा रहे थे। एक महाशय उकड़ु बने बैठे थे जो बाद में दिमागी रुप से थोड़ा कमजोर मालूम हुए। फिर बात-चीत के दौरान पता चला कि उनकी पत्नी पर उनके पिता ने कब्जा किया हुआ है सो वो रात को घर नहीं जाते। ऐसे ही रतजगा करते हैं। बगल में सामियाने में मंडप सजा था, विभिन्न देवी-देवताओं की तस्वीरे सजी थी और समीप ही कीर्तन मंडली जमी थी। मंडली में एक ढोलकिया, एक गवैया झाल के साथ और एक साथ देने वाले सज्जन थे झाल झाल लिए हुए। मैं भी अपना सामान रख एक कुर्सी पर बैठ गया। पंचा भईया आकर देख गए। वह संतुष्ट थे कि ऐसे माहौल में रात तो देखते-देखते कट जाएगी। मैने भी घर फोन कर बता दिया कि यहां सारी सुविधा मौजूद है और आप सभी लोग बगैर चिन्ता के आराम से सो जाएं। पूरे लगन और ईमानदारी के साथ एक से बढ़कर एक फिल्मी धुनों पर कीर्तन गाए जाते रहे और साथ में चीलम के दौर भी चलते रहे। एक दो बार गवैये बदले। बीच में मैं जाकर गाड़ी का हाल-पता ले आता। एक चिन्ता मुझे और थी कि रात को ट्रेन के दरवाजे तो अन्दर से लोगों ने बंद कर रखे होंगे। अपनी बॉगी मैं कैसे पहचानुंगा। ट्रेन एक-दो मिनट से ज्यादा तो रुकने से रही। खैर ट्रेन आई और यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि कंडक्टर साहब ने खुद दरवाजा खोलकर बाहर से आने वाली सवारी का स्वागत किया। फटाफट उन्होने टिकट चेक किया और अटेंडेंट ने बिस्तर थमा दिया। अंदर माहौल बिल्कुल बढ़िया था, डिब्बा खुब गर्म था। मैने भी तुरन्त सीट ढुंढ बिस्तर बिछाया और लेट गया।
झांसी एक्सप्रेस में पैन्ट्री कार नहीं होती सो लोग दिन के दस बजते-बजते छटपाटाने लगे। कोई कहता-पहली बार इस ट्रेन में चढ़ा हूँ। पता रहता तो इसमें टिकट ही नहीं लेता। कोई उसे महा वाहयात गाड़ी बता रहा था तो कोई अपनी मजबूरी का रोना रो रहा था। अम्मा की दी लीट्टियाँ मेरे साथ थीं सो खाने की चिन्ता तो मुझे बिल्कुल भी नहीं थी। खुद भी खाया और अगल-बगल के यात्रियों को भी दिया। रास्ता अच्छा कट रहा था पर झांसी से आगे कैसे जाना है इसकी फिक्र तो लगी ही थी। मैने लखनउ में अपने दोस्त पुष्प रंजन भाई को फोन कर पूछा कि झांसी में कौन सी गाड़ी मिलेगी हैदराबाद के लिए। उन्होने कुछ ट्रेनों के नाम गिनाए पर यहां असल मुद्दा तो ये था कि कुहासे के कारण सारी ट्रेने लेट चल रहीं थीं। कौन सी ट्रेन कब कहां मिलेगी यह तो अब भाग्य भरोसे ही था। सो ट्रेन की चिन्ता मन से निकाल दी और फैसला किया कि अब तो झांसी जाकर जो होगा देखा जाएगा। मैं अपने एक साथी यात्री के साथ बातों में लग गया। पास की सीट पर बैठे एक सज्जन अपनी बहु की बुराई करने में लगे हुए थे। बहु की निंदा के करने के साथ-साथ वह वर्तमान में जीवन शैली, शिक्षा पद्धति, पारिवारिक मुल्यों जैसी तमाम अन्य सामाजिक संरचनाओं मे व्याप्त निरन्तर ह्रास की स्थिति का रोना भी रो रहे थे। देख-सुन कर लग रहा था कि वह इससे बहुत आहत हैं। खैर अपना व्यक्तव्य समाप्त कर वह आराम करने चले गए। पास बैठे सहयात्री ने अब मुँह खोला और आनन-फानन ही बहु की बुराईयों के लिए वह उन्हीं महाशय को दोषी ठहराने लगा। कहने लगा, "जरुर कुछ गलती इनकी भी होगी, ताली कोई एक हाथ से बजती है। बहु ढुंढने चलेंगे तो पढ़ी-लिखी, अंग्रेजी बोलने वाली, कमाने वाली की फर्माइश करेंगे और फिर रात को जब तक नींद न लग जाए पाँव दबवाने की तलब होगी तो भला कैसे बात बने।ये हमारी खुद गलती कर दोष दूसरों पर थोंपने की आदत कभी नहीं छूट सकती।"
इधर हरे रामा हरे कृष्णा की धुन से वातावरण गुंजायमान था। स्टेशन के ठीक पीछे बने मंदिर पर अखण्ड कीर्तन का आयोजन पिछले कुछ दिनों से चल रहा था। मथुरा से कोई बाबा आए थे। उन्हींके देख रेख में कार्यक्रम का आयोजन हुआ था। अभी दो दिन पहले ही अफवाह उड़ी थी कि बाबा चंदा का पैसा लेकर भाग गए और आयोजक उनको तालाश रहे हैं पर यहां ऐसा कुछ नहीं था। कीर्तन मध्य रात्रि में भी अपने जोर पर था। ट्रेन तो लेट थी ही तथा अंधेरे और ठंड में स्टेशन की बेंच पर बैठने का कोई मतलब नहीं था सो कीर्तन स्थल की ओर अनायास ही पैर बढ़ गए। वहां जेनरेटर चल रहा था और मरकरी(ट़युब लाइट) और बल्ब रौशन थे। पास में एक बड़े पेंड़ का तना अलाव के रुप में जल रहा था सो गर्मी भी थी। कुर्सिया अलाव के आस-पास रखीं थीं। एक कुर्सी पर एक साहब बैठे थे जो आयोजकों में से एक जान पड़ते थे। अलाव के समीप ही एक जने लम्बे पड़े थे जो पता चला कीर्तन मंडली के सदस्य थे और अपनी बारी आने तक आराम फरमा रहे थे। एक महाशय उकड़ु बने बैठे थे जो बाद में दिमागी रुप से थोड़ा कमजोर मालूम हुए। फिर बात-चीत के दौरान पता चला कि उनकी पत्नी पर उनके पिता ने कब्जा किया हुआ है सो वो रात को घर नहीं जाते। ऐसे ही रतजगा करते हैं। बगल में सामियाने में मंडप सजा था, विभिन्न देवी-देवताओं की तस्वीरे सजी थी और समीप ही कीर्तन मंडली जमी थी। मंडली में एक ढोलकिया, एक गवैया झाल के साथ और एक साथ देने वाले सज्जन थे झाल झाल लिए हुए। मैं भी अपना सामान रख एक कुर्सी पर बैठ गया। पंचा भईया आकर देख गए। वह संतुष्ट थे कि ऐसे माहौल में रात तो देखते-देखते कट जाएगी। मैने भी घर फोन कर बता दिया कि यहां सारी सुविधा मौजूद है और आप सभी लोग बगैर चिन्ता के आराम से सो जाएं। पूरे लगन और ईमानदारी के साथ एक से बढ़कर एक फिल्मी धुनों पर कीर्तन गाए जाते रहे और साथ में चीलम के दौर भी चलते रहे। एक दो बार गवैये बदले। बीच में मैं जाकर गाड़ी का हाल-पता ले आता। एक चिन्ता मुझे और थी कि रात को ट्रेन के दरवाजे तो अन्दर से लोगों ने बंद कर रखे होंगे। अपनी बॉगी मैं कैसे पहचानुंगा। ट्रेन एक-दो मिनट से ज्यादा तो रुकने से रही। खैर ट्रेन आई और यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि कंडक्टर साहब ने खुद दरवाजा खोलकर बाहर से आने वाली सवारी का स्वागत किया। फटाफट उन्होने टिकट चेक किया और अटेंडेंट ने बिस्तर थमा दिया। अंदर माहौल बिल्कुल बढ़िया था, डिब्बा खुब गर्म था। मैने भी तुरन्त सीट ढुंढ बिस्तर बिछाया और लेट गया।
झांसी एक्सप्रेस में पैन्ट्री कार नहीं होती सो लोग दिन के दस बजते-बजते छटपाटाने लगे। कोई कहता-पहली बार इस ट्रेन में चढ़ा हूँ। पता रहता तो इसमें टिकट ही नहीं लेता। कोई उसे महा वाहयात गाड़ी बता रहा था तो कोई अपनी मजबूरी का रोना रो रहा था। अम्मा की दी लीट्टियाँ मेरे साथ थीं सो खाने की चिन्ता तो मुझे बिल्कुल भी नहीं थी। खुद भी खाया और अगल-बगल के यात्रियों को भी दिया। रास्ता अच्छा कट रहा था पर झांसी से आगे कैसे जाना है इसकी फिक्र तो लगी ही थी। मैने लखनउ में अपने दोस्त पुष्प रंजन भाई को फोन कर पूछा कि झांसी में कौन सी गाड़ी मिलेगी हैदराबाद के लिए। उन्होने कुछ ट्रेनों के नाम गिनाए पर यहां असल मुद्दा तो ये था कि कुहासे के कारण सारी ट्रेने लेट चल रहीं थीं। कौन सी ट्रेन कब कहां मिलेगी यह तो अब भाग्य भरोसे ही था। सो ट्रेन की चिन्ता मन से निकाल दी और फैसला किया कि अब तो झांसी जाकर जो होगा देखा जाएगा। मैं अपने एक साथी यात्री के साथ बातों में लग गया। पास की सीट पर बैठे एक सज्जन अपनी बहु की बुराई करने में लगे हुए थे। बहु की निंदा के करने के साथ-साथ वह वर्तमान में जीवन शैली, शिक्षा पद्धति, पारिवारिक मुल्यों जैसी तमाम अन्य सामाजिक संरचनाओं मे व्याप्त निरन्तर ह्रास की स्थिति का रोना भी रो रहे थे। देख-सुन कर लग रहा था कि वह इससे बहुत आहत हैं। खैर अपना व्यक्तव्य समाप्त कर वह आराम करने चले गए। पास बैठे सहयात्री ने अब मुँह खोला और आनन-फानन ही बहु की बुराईयों के लिए वह उन्हीं महाशय को दोषी ठहराने लगा। कहने लगा, "जरुर कुछ गलती इनकी भी होगी, ताली कोई एक हाथ से बजती है। बहु ढुंढने चलेंगे तो पढ़ी-लिखी, अंग्रेजी बोलने वाली, कमाने वाली की फर्माइश करेंगे और फिर रात को जब तक नींद न लग जाए पाँव दबवाने की तलब होगी तो भला कैसे बात बने।ये हमारी खुद गलती कर दोष दूसरों पर थोंपने की आदत कभी नहीं छूट सकती।"
स्वयं सुधार की चर्चा हो तो आध्यात्म सहज ही उस चर्चा का विषय बन जाता है। पता चला वह किसी योग संस्थान से जुड़े थे। मैने अपने दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान का परिचय दिया और चुंकि वह भोपाल के रहने वाले थे सो उनसे संस्थान के भोपाल स्थित कार्यालय पर संपर्क करने का आग्रह किया।
आखिर गाड़ी रात के दस बजे झांसी पहुंची। मैंने उतरते ही हैदराबाद जाने वाली गाड़ीयों के विषय में पूछ-ताछ की। सारी गाड़ियां लेट थीं और अगले दिन दोपहर बारह बजे तक हैदराबाद के लेए कोई सीधी गाड़ी नहीं थी। बड़ी मुसीबत। पास ही खड़े कुछ लोग जो भी गाड़ी मिले उससे आगे यात्रा जारी रखने की बात कर रहे थे। एक सज्जन से मैने पुछा तो उन्होने, मुम्बई जाने वाली कोई भी गाड़ी पकड़ इटारसी चले जाने का सुझाव दिया और फिर वहां से हैदराबाद के लिए बनारस की तरफ से आने वाली गाड़ियों के मिल जाने की बात बताई। बात मुझे अच्छी लगी और वैसे भी 12-14 घंटे झांसी स्टेशन पर काटने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। अंततः मैने काउन्टर से हैदराबाद तक के लिए साधारण श्रेणी का टिकट लिया। सोचा रास्ते में टी.टी से स्लीपर का टिकट बनवा लुंगा और क्या पता कोई बर्थ भी मिल जाए। तभी पता चला कि बरेली-मुम्बई आने वाली है सो मैं प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ पड़ा। वहां एक घंटे के इंतजार के बाद गाड़ी आई। ठंड की चर्चा करने का कोई मतलब नहीं, वह चरम पर थी। ट्रेन में सीट के कोने पर किसी तरह टिक गया। आखिर अम्मा का दिया कम्बल काम आया। चारों तरफ से खुद को लपेटे, मोफलर बांधे टिका रहा। करीब सात घंटे का सफर रहा होगा जो मैने कभी बैठ कर और थक जाता तो टहल कर काटा। सुबह सात बजे के आस-पास इटारसी पहुँचा। तुरन्त बाहर निकलकर पूछा तो पता चला कि पटना-सिकंदराबाद एक्सप्रेस आने वाली है। मन ही मन झांसी में इटारसी चले जाने की सलाह देने वाले सज्जन का धन्यवाद किया। इतनी जल्दी गाड़ी मिल जाने की खबर सुन कर थकान तो वैसे ही गायब हो चुकी थी। भाग कर फिर प्लेटफॉर्म पर आ गया। अब बैठ कर यात्रा करने की हिम्मत नहीं बची थी। प्लैटफॉर्म पर एक टीटी महोदय से बात की तो उन्होने कहा गाड़ी आने दिजिए टिकट बन जाएगा। गाड़ी आई फिर अनुरोध किया इस बार दूसरे टीटी से। अबकि बात बन गई। उन्होने S-7 के 7 नंबर सीट पर जाकर बैठने को कहा। मुझे और क्या चाहिए था। मैं पहुंच गया। सीट पर एक सज्जन पहले से बैठे थे। मैने बता दिया कि टीटी साहब ने भेजा है और एक तरफ बैठ गया। करीब दो घंटे बाद टीटी ने आकर पेनाल्टी लेकर मेरा इटारसी से हैदराबाद तक का स्लीपर का टिकट बना दिया और नागपुर के बाद उसी डिब्बे के 37 नम्बर सीट पर चले जाने को कहा। देखते ही देखते आसमान से बादल गायब होते गए, ठंड का अहसास भी जाता रहा और आसमान में सूर्य अपनी तेज चमक बिखेरता नजर आया। यह इस बात का प्रतीक था कि अब मैं उत्तर की सीमा लांघ दक्षिण की ओर बढ़ रहा था। नागपुर में मैं उक्त सीट पर चला गया। अब मेरे आस-पास तेलुगु भाषी लोग थे जो वाराणसी से तीर्थ कर लौट रहे थे। वे लोग ताश खेलने में मशगूल थे और मेरे पास अब करने को कुछ नहीं था सिवाय इसके कि थोड़ा लेट लूँ। नींद जोरों की आ रही थी और अब सोने के लिए जगह भी मिल चुकी थी। करीब 12.00 बजे रात को ट्रेन सिकंदराबाद स्टेशन पर पहुँची। बाहर निकल ऑटो लिया और दस मिनट के अंदर अपने फ्लैट पर था। अम्मा के दिए तिल के लड़डु काम आए, खाया और एक बार फिर बिस्तर पर गिर पड़ा।