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Wednesday, November 2, 2011
Thursday, October 20, 2011
Tuesday, October 18, 2011
अधूरे शौक...
बचपन में चित्रकारी का शौक था। खासकर कॉमिक्स के चरित्रों के चित्र बनाने का...नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा आदि...कभी कुछ प्राकृतिक दृश्य...कभी देवी-देवताओं के चित्र बनाए। मुख्यतः स्केच पेन या पेन्सिल से बनाया करता था। हमेशा सोचता था कि एक दिन वाटर-कलर खरीद कर ले आउंगा पर नहीं ला सका और जो बनाया वह भी तभी तक जब तक अपने जन्म-स्थान सिरका कोलियरी, झारखंड में रहा।
अभी कुछ दिनों पहले बिग-बाजार में ऐसे ही घूमते वक्त वाटर-कलर पर नजर गई तो एक ड्रॉइंग-बुक के साथ खरीद लाया। अब पन्द्रह साल बाद एक बार फिर शुरु करते हैं उस बीच में छूटी यात्रा को, ताजा करते हैं पुरानी यादों को।
Friday, October 14, 2011
भूखा
आप धूर्त और मक्कार हैं
बिना किसी प्लानिंग के
युँ ही हैं निकल पड़ते
शहर की सड़कों पर
इधर-उधर सरकते हुए
मॉलों-अटारियों पर
छलकते-मचलते हुए
कइयों किलोमीटर
क्योंकि आज इतवार है,
तोड़े हैं पैसे
और आपके पास खाली समय भी है भरपूर
या फिर हो सकता है
किआप बेकार और बेरोजगार हैं
बिना किसी प्लानिंग के
युँ ही हैं निकल पड़ते
शहर की सड़कों पर
इधर-उधर झांकते हुए
रेहड़ी-पटरियों पर
बुझते-सुलगते हुए
दसियों किलोमीटर
क्योंकि आज जाने कौन सा वार है
थोड़े हैं पैसे
और आपके पास खाली कुसमय है भरपूर
Wednesday, October 12, 2011
Sunday, October 2, 2011
टिफिन बॉक्स
I
यह एक अलिखित पैक्ट ही था कि जुनियर आगे की सीटों पर बैठते थे और सीनीयर पिछली सीटों की तरफ। हम आम-तौर पर आहिस्ते- आहिस्ते आपस में बातें करते थे और वे पीछे खूब शोर मचाते, हुल्लड़बाजी करते, आगे बैठी लड़कियों की तरफ कभी-कभी चौक फेंकते, आने-जाने वाले पैदल यात्रियों को चिढ़ाते और ऐसी ही तमाम शरारतें करते। ...हम चुप-चाप सीनीयर होने का इंतजार कर रहे थे।
यह एक अलिखित पैक्ट ही था कि जुनियर आगे की सीटों पर बैठते थे और सीनीयर पिछली सीटों की तरफ। हम आम-तौर पर आहिस्ते- आहिस्ते आपस में बातें करते थे और वे पीछे खूब शोर मचाते, हुल्लड़बाजी करते, आगे बैठी लड़कियों की तरफ कभी-कभी चौक फेंकते, आने-जाने वाले पैदल यात्रियों को चिढ़ाते और ऐसी ही तमाम शरारतें करते। ...हम चुप-चाप सीनीयर होने का इंतजार कर रहे थे।
- बाबु, भागो बस का समय हो गया है। टिफिन में पराठा-भुंजिया रख दिया है याद से खा लेना। ये अम्मा की आवाज़ थी और मैं भागा।
सच में ही बस स्टैंड पर खड़ी थी, थोड़ी और देर हो जाती तो छूट ही गई होती। आदत के मुताबिक मैं सीधा जाकर पिछली सीट पर बैठ गया।
कुछ दिनों बाद दिवाली थी और स्कूल में हर दिन कहीं न कहीं बच्चों द्वारा पटाखे फोड़े जा रहे थे। कभी पीछे स्टेडियम में, कभी कूड़े के ढेर में, कभी टॉयलेट्स में, असेम्बली के लिए बने स्टेज के नीचे, नई बन रही बिल्डिंग में और ऐसी ही तमाम जगहों पर जहाँ लोगों का आना-जाना कम था। स्कूल एड्मिनीस्ट्रेशन के साथ जैसे चोर-सिपाही का खेल चल रहा हो। देखते हैं कैसे पकड़ते हैं। पीटी वाले युपी सिंह सर, इंग्लीश के गुप्ता सर और साइंस के खान सर पूरे जोर-शोर से इन शरारती बच्चों को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। रोज सुबह प्रेयर के बाद पकड़े जाने पर स्ट्रीक्ट पनीशमेंट मिलने की चेतावनियां दी जा रहीं थीं पर धमाके जारी थे और कोई पकड़ में नहीं आ रहा था।
II
असेम्बली में मैं प्रार्थना की मुद्रा में हाथ जोड़े लाइन में खड़ा था। पर जैसे मेरे आस-पास सारी दुनिया घूम रही थी। किसी तरह खुद को सम्भाले खड़ा था। बाँयी तरफ हमारी क्लास में चेकिंग चल रही थी।
देहु शिवा वर मोहि इहे।
शुभ करमन से कबहुँ न टरुँ।
सारे बच्चे सुर में गा रहे थे।
- अब नहीं बचुंगा। अब तो पकड़ा ही जाउंगा। नाहक ही मैने हामी भर दी। ऐसी ही जाने कितनी बातें हथौड़े की तरह दिमाग पर टन-टन कर चोट कर रहीं थीं। करते करते राष्ट्र गान भी पार हो गया। कहीं कोई हो हल्ला नहीं। अब बच्चे लाइन से अपनी-अपनी क्लास की ओर जाने लगे। मेरी जान में जान आई।
-लगता है बच गया। उनकी नजर नही गई होगी। क्लास में पहुँचा तो देखा कि चेकिंग टीम क्लास में ही मौजूद थी। जैसे ही सारे बच्चे अन्दर आए अनाउन्समेंट हुआः
- अगर कोई कुछ लेकर आया है तो दे-दे। हम कुछ नहीं करेंगे। अगर चेकिंग के दौरान पकड़े गए तो बहुत पिटाई होगी।
ये कुछ क्या था। सबको मालूम था। मैने कनखियों से अपने दोस्तों की ओर देखा। उनके इशारे का मतलब मैने यही निकाला कि वो हिम्मत रखने को कह रहे हैं कि कुछ नहीं होगा। अभी सब ठीक हो जाएगा। मैने भी सोचा कि ये तो वही रटा-रटाया डायलॉग है जो आम-तौर से टीचर लोग बोलते ही रहते हैं। तो चुप-चाप सिर नीचे किए मैं बैठा रहा। तभी अचानक
-हाँ, तुम उठो। बैग लेकर इधर आओ।
-सर, मेरे पास कुछ नहीं है।
-अभी पता चल जाएगा।
और फिर बैग खोल कर उसे ज़मीन पर पलट दिया। मैं फटा-फट झुक कर अपने कॉपी-किताब चुनने लगा। टिफिन उठाई पर यह क्या...ये तो पुरा भरा हुआ था।
-टिफिन बॉक्स इधर दो।
-नहीं, इसमें कुछ नहीं है।
-दिखाओ तो सही।
और टिफिन-बॉक्स खोल कर पलट दिया। अगले ही पल हरी-हरी गोलियाँ जमीन पर कलाबाजियाँ खा रही थीं।
-मेरे नहीं हैं। अभी इतना ही कहा था कि मुक्कों और झापड़ों की जैसे बरसात चालू हो गई।
पकड़ कर बाहर ले आए। बाहर देखा तो पूरा स्कूल असेम्बली ग्राउंड में ही खड़ा था। अभी कुछ देर पहले लाइन लगाकर क्लास में जा रहे बच्चे हुजुम लगाकर तमाशा देखने बाहर खड़े थे।
थोड़ी ही देर में तमाशे की केन्द्र बिन्दु प्रार्थना के लिए बना स्टेज था।
मुझे बार-बार यह समझाया जा रहा था कि ये काम मैने नहीं किया है। जरुर किसी ने मुझे दिए हैं। अगर मैने उनके नाम बता दिए तो पिटाई बंद हो जाएगी। दस-पाँच मिनट जितना सह सकता था सहा और फिर हिम्मत छूट गई।
III
II
असेम्बली में मैं प्रार्थना की मुद्रा में हाथ जोड़े लाइन में खड़ा था। पर जैसे मेरे आस-पास सारी दुनिया घूम रही थी। किसी तरह खुद को सम्भाले खड़ा था। बाँयी तरफ हमारी क्लास में चेकिंग चल रही थी।
देहु शिवा वर मोहि इहे।
शुभ करमन से कबहुँ न टरुँ।
सारे बच्चे सुर में गा रहे थे।
- अब नहीं बचुंगा। अब तो पकड़ा ही जाउंगा। नाहक ही मैने हामी भर दी। ऐसी ही जाने कितनी बातें हथौड़े की तरह दिमाग पर टन-टन कर चोट कर रहीं थीं। करते करते राष्ट्र गान भी पार हो गया। कहीं कोई हो हल्ला नहीं। अब बच्चे लाइन से अपनी-अपनी क्लास की ओर जाने लगे। मेरी जान में जान आई।
-लगता है बच गया। उनकी नजर नही गई होगी। क्लास में पहुँचा तो देखा कि चेकिंग टीम क्लास में ही मौजूद थी। जैसे ही सारे बच्चे अन्दर आए अनाउन्समेंट हुआः
- अगर कोई कुछ लेकर आया है तो दे-दे। हम कुछ नहीं करेंगे। अगर चेकिंग के दौरान पकड़े गए तो बहुत पिटाई होगी।
ये कुछ क्या था। सबको मालूम था। मैने कनखियों से अपने दोस्तों की ओर देखा। उनके इशारे का मतलब मैने यही निकाला कि वो हिम्मत रखने को कह रहे हैं कि कुछ नहीं होगा। अभी सब ठीक हो जाएगा। मैने भी सोचा कि ये तो वही रटा-रटाया डायलॉग है जो आम-तौर से टीचर लोग बोलते ही रहते हैं। तो चुप-चाप सिर नीचे किए मैं बैठा रहा। तभी अचानक
-हाँ, तुम उठो। बैग लेकर इधर आओ।
-सर, मेरे पास कुछ नहीं है।
-अभी पता चल जाएगा।
और फिर बैग खोल कर उसे ज़मीन पर पलट दिया। मैं फटा-फट झुक कर अपने कॉपी-किताब चुनने लगा। टिफिन उठाई पर यह क्या...ये तो पुरा भरा हुआ था।
-टिफिन बॉक्स इधर दो।
-नहीं, इसमें कुछ नहीं है।
-दिखाओ तो सही।
और टिफिन-बॉक्स खोल कर पलट दिया। अगले ही पल हरी-हरी गोलियाँ जमीन पर कलाबाजियाँ खा रही थीं।
-मेरे नहीं हैं। अभी इतना ही कहा था कि मुक्कों और झापड़ों की जैसे बरसात चालू हो गई।
पकड़ कर बाहर ले आए। बाहर देखा तो पूरा स्कूल असेम्बली ग्राउंड में ही खड़ा था। अभी कुछ देर पहले लाइन लगाकर क्लास में जा रहे बच्चे हुजुम लगाकर तमाशा देखने बाहर खड़े थे।
थोड़ी ही देर में तमाशे की केन्द्र बिन्दु प्रार्थना के लिए बना स्टेज था।
मुझे बार-बार यह समझाया जा रहा था कि ये काम मैने नहीं किया है। जरुर किसी ने मुझे दिए हैं। अगर मैने उनके नाम बता दिए तो पिटाई बंद हो जाएगी। दस-पाँच मिनट जितना सह सकता था सहा और फिर हिम्मत छूट गई।
III
आखिरकार वह हुआ जिसका सबको डर था। कहीं प्रिंसीपल, जिसे सारे लड़के काला केंकड़ा कह कर(KK) बुलाते थे, का बुलावा न आ जाए। पता नहीं ये सारे स्कूलों के प्रिंसीपल इतने खुंख्वार क्यों होते हैं।
-तुम सब लोगों को प्रिंसीपल साहब ने अपने चेम्बर में बुलाया है। - प्रिंसीपल के असिस्टेंट ने फरमान सुनाया।
-अब ये तो होना ही था।
-अबे, घर जाकर क्या बताएंगे।
-सारे कह रहे हैं कि हमें टीसी मिल जाएगी।
-स्कूल से नाम काट देंगे और रिजल्ट पर लाल स्याही से लिख देंगे कि इनको कोई अपने स्कूल में न रखे।
-अब गलती की है तो भुगतना तो पड़ेगा।
-कुछ नहीं होगा यार...दो-चार झापड़ और मारकर छोड़ देंगे।
कुछ देर के बाद हम सब प्रिंसीपल के ऑफिस में कान पकड़कर उठक-बैठक कर रहे थे और फिर कभी जीवन में ऐसी हरकत न करने की कसमें खा रहे थे।
-तुम सब लोगों को प्रिंसीपल साहब ने अपने चेम्बर में बुलाया है। - प्रिंसीपल के असिस्टेंट ने फरमान सुनाया।
-अब ये तो होना ही था।
-अबे, घर जाकर क्या बताएंगे।
-सारे कह रहे हैं कि हमें टीसी मिल जाएगी।
-स्कूल से नाम काट देंगे और रिजल्ट पर लाल स्याही से लिख देंगे कि इनको कोई अपने स्कूल में न रखे।
-अब गलती की है तो भुगतना तो पड़ेगा।
-कुछ नहीं होगा यार...दो-चार झापड़ और मारकर छोड़ देंगे।
कुछ देर के बाद हम सब प्रिंसीपल के ऑफिस में कान पकड़कर उठक-बैठक कर रहे थे और फिर कभी जीवन में ऐसी हरकत न करने की कसमें खा रहे थे।
Monday, July 18, 2011
Tuesday, May 17, 2011
कोढ़ी बुढ़िया
अभी बाजार बंद है
मंडरा रहे हैं सड़कों पर
दूधिये और अखबार वाले
और घूम रहे हैँ भिखमंगे
बंद डिजायनर साड़ियों की दूकान
सामने बैठी है चीथड़ों में लिपटी
एक कोढ़ी बुढिया
दो पोटले साथ लिए
एक स्टील का गिलास और
एक छोटा भगोना हाथ लिए
फैलाती है वह अपने कोढ फुटे
हाथ आने-जाने वालों को सामने
हाथों में है चुड़ियाँ
और नाक में चमकती
सुनहले रंग की कील
.
.
.
लगता है काफी माल
बटुर गया है
सो लगाती है हिसाब
पहले सिक्के गिन रखती है
बटुए में
फिर लगाती है वह हिसाब पापी पेट का
पॉलीथीन खोल-खोल कर देखती है
सूंघती है, छूती है और बांटती है
उन्हे दो हिस्सों में
एक को झोले में डाल
दूसरा फेंक आती है
कूड़े के ढेर में
टूटे चप्पल एक ओर रख
अपने आसनी को झाड़ती है
मुझे लगा कि वो अपना दूकान
समेट रही है कि
शोरुम के खुलने का समय
हो रहा है
पर नहीं दिशा बदल कर
वह एक बार फिर बैठ जाती है
अब उसके सामनै है रविवार
की प्रार्थना के लिए जुट रहे लोगों का
"The King's Temple".
मंडरा रहे हैं सड़कों पर
दूधिये और अखबार वाले
और घूम रहे हैँ भिखमंगे
बंद डिजायनर साड़ियों की दूकान
सामने बैठी है चीथड़ों में लिपटी
एक कोढ़ी बुढिया
दो पोटले साथ लिए
एक स्टील का गिलास और
एक छोटा भगोना हाथ लिए
फैलाती है वह अपने कोढ फुटे
हाथ आने-जाने वालों को सामने
हाथों में है चुड़ियाँ
और नाक में चमकती
सुनहले रंग की कील
.
.
.
लगता है काफी माल
बटुर गया है
सो लगाती है हिसाब
पहले सिक्के गिन रखती है
बटुए में
फिर लगाती है वह हिसाब पापी पेट का
पॉलीथीन खोल-खोल कर देखती है
सूंघती है, छूती है और बांटती है
उन्हे दो हिस्सों में
एक को झोले में डाल
दूसरा फेंक आती है
कूड़े के ढेर में
टूटे चप्पल एक ओर रख
अपने आसनी को झाड़ती है
मुझे लगा कि वो अपना दूकान
समेट रही है कि
शोरुम के खुलने का समय
हो रहा है
पर नहीं दिशा बदल कर
वह एक बार फिर बैठ जाती है
अब उसके सामनै है रविवार
की प्रार्थना के लिए जुट रहे लोगों का
"The King's Temple".
Wednesday, May 11, 2011
Monday, May 9, 2011
कबीर के दोहों का रुसी में अनुवाद - समीक्षा
जब जेएनयु में था तब वरयाम सर ने बहुत सारी किताबें मुझे उपहार स्वरुप दी थीं। उन्हीं में से एक - कबीर के दोहों का रुसी में अनुवादित संकलन था। यह अनुवाद मूल भाषा हिन्दी से रुसी भाषा में येलेना शराबचियेवा और अनिल जनविजय जी द्वारा किया गया है। इसी संकलन से एक दोहा और उसका रुसी अनुवाद उद्घृत कर रहा हूँ। प्रस्तुत दोहा आध्यात्मिक जगत के मार्ग पर अग्रसर साधक (जो यहाँ स्वयं कबीर हैं) के आध्यात्मिक अनुभवों पर आधारित है।
सर गगन गुफा में अजर झरे।
बिन बाजा झनकार उठे जहँ परे जब ध्यान धरे।
बिन ताल जँह कँवल फुलाने तेहि चढ़ि हंसा केलि करे।
बिन चंदा उजियारा दरसे जहां तहँ हंसा नजर परे।
दसबे द्वार तारि लागी अलख पुरुष जाके ध्यान धरे।
काल कराल निकट नहिं आवै, काम क्रोध मद लोभ जरे।
जुगन जुगन की तृष्णा बुझानी कर्म धर्म अध व्याधि टरे।
कहे कबीर सुनो भई साधो अमर होय कबहुं न मरे।
Нектарный дождь идёт все время
В той сфере неба, что от взора скрыта.
Без инструментов музыка прекрасная звучит.
Лотос цветет, но нет резервуара,
И лебеди вокруг резвятся.
Там нет луны,
Но залито все ярким лунным светом.
Когда Всевышний начинает думать о тебе,
Снимается замок с десятой двери, -
Ни смерть, ни страх приблизиться уже не могут,
Сгорает похоть, гнев, гордыня, жадность;
Жажда, что мучила на протяженье
Многих юг, утоленье получает;
Болезни все, и карма вся, джапа -
Все исчезает.
Говорит Кабир:
"Слушай, о садху!
Ты станешь бессмертным,
Ты никогда не умрёшь".
सर्व श्री आशुतोष जी महाराज के शिश्यत्व में आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर हूँ और महाराज जी की कृपा से ही इस क्षेत्र की बारीकियों की जो थोड़ी-बहुत समझ मुझमें विकसित हूई है उसके आधार पर अनुवाद पर टिप्पाणि कर रहा हूँ।
अनुवाद पठनीयता के दृष्टिकोण से अच्छा है। पठनीयता बनाए रखने के उद्देश्य से ही रुसी में पंक्तियों की संख्या ज्यादा हो गई है जो उचित है। इसके बावजूद कुछ ऐसे बिन्दु हैं जहाँ सुधार की गुंजाइश है। जिन शब्दों को गुलाबी रंग से मार्क किया है उनका अनुवाद नहीं हुआ है और जिस पंक्ति को नीले रंग से चिन्हित किया है उसका अनुवाद संतोषजनक नहीं है। "सर" और "गुफा" ये दोनों ही शब्द बड़े ही महत्वपूर्ण हैं इन्हें किसी भी स्थिति में हटाया नहीं जाना चाहिए था। बिना किसी बाजे के झनकार तभी उठती है जब साधक ध्यान धरता है। अनुवाद में बाजे के बगैर झनकार तो है पर ध्यान का जिक्र कहीं नहीं है। मूल में हंस एक है पर अनुवाद में हंस कई हो गए हैं जो आधयात्म के अनुसार बिल्कुल गलत है। कबीर कहते हैं कि बिन चंदा के उजियारा तब होता है जब उस हंसा पर नजर पड़ती है जबकि अनुवाद में बिन चंदा के उजियारा तो है पर हंसा पर नजर पड़ने का बात गोल है। दसवें द्वार पर ताला लगे होने की बात कबीर कर रहे हैं, अलख पुरुष जिसका ध्यान करता है परन्तु अनुवाद में उस ताले के ईश्वर के द्वारा याद किए जाने पर खुल जाने का जिक्र करना अनुवादक की अपनी कल्पना है। अंतिम की तीन पंक्तियों का अनुवाद बिल्कुल परफेक्ट है।
Wednesday, May 4, 2011
मसूरी के "गनरॉक" पर
साल 2004, रुसी सीखना अभी शुरु ही किया था कि हमें गर्मी की छुट्टियों में पार्ट टाइम नौकरी करने देहरादून जाने का सुनहरा अवसर मिला और बस बोरिया-बिस्तर बाँध हम पहुँच गए उत्तरांचल।
इसी दौरान मसुरी जाने का मौका मिला और यह तस्वीर मसूरी की सबसे उँचे स्थान "गन रॉक" की है। मीणा भाई, धर्मेन्द्र बाबु, सुमन ब्रदर्स (चंदन सुमन एवं शेखर सुमन जी) के साथ गुजारे गए वो दिन यादगार रहेंगे।
इसी दौरान मसुरी जाने का मौका मिला और यह तस्वीर मसूरी की सबसे उँचे स्थान "गन रॉक" की है। मीणा भाई, धर्मेन्द्र बाबु, सुमन ब्रदर्स (चंदन सुमन एवं शेखर सुमन जी) के साथ गुजारे गए वो दिन यादगार रहेंगे।
Monday, April 25, 2011
डिमरी सर के लिए...
कितना अच्छा लगता है जब एक शिक्षक के रुप में आप बच्चों के साथ ईमानदारी पूर्वक अपना ज्ञान साझा करते हैं और फिर वही बच्चे आपके उस परिश्रम के एवज में थोड़ा सम्मानऔर प्यार आपको वापस लौटाते हैँ। इसी प्रक्रिया का एक सुखद उदाहरण आज डिमरी सर और उनके द्वारा पढ़ाए गए विद्यार्थियों ने पेश किया।
रशियन फस्ट ईयर के बच्चों ने डिमरी सर को विदाई देने के उद्देश्य से एक छोटे पर प्यारे से कार्यक्रम का आयोजन किया। मैं उनके साथ एक्स्टर्नल के रुप में इन्ही बच्चों के सेमेस्टर की अंतिम परिक्षा में शामिल था। परीक्षा समाप्त होते ही बच्चों ने आग्रह किया की मैं डिमरी सर को थोड़ी देर तक व्यस्त रखुं ताकि वे जरुरी तैयारियाँ कर सकें। हम चाय पीने चले गए इतनी देर में उन्होने पंखे के उपर फूल वगैरह रख दिए। जब तक लौट कर आए तब तक उन्होने सारी तैयारी पूरी कर ली थी और स्कूल के अन्य अध्यापकगण भी आ चुके थे। सर के अपना स्थान सम्भालते ही उन्होने सामने केक सजाया और मोमबत्ती जलाई फिर पंखा चलाया और फूलों की बरसात के बीच सर ने केक काटा। बस शुरु हो गया उनको केक खिलाने का सिलसिला। सारे बच्चे उन्हे अपने हाथों से केक खिलाना चाहते थे। फिर उनके लिए तैयार की गई एक स्पीच पढ़ी उन्होने और प्यारी सी कविता सुनाई। थोड़ा मजाक भी किया "सर अब स्ट्रेस और इन्टोनेशन का क्या होगा?" और एक ने तो उनसे ही प्रश्न पूछ डाला "Что вы любите делать в свободное время?" अर्थात "आप खाली समय में क्या करना पसंद करते हैं?" अभी थोड़ी देर पहले तक वो बच्चों से यही प्रश्न पूछ रहे थे। एक बच्चे ने मशहूर भोजपूरी लोकगीत के तर्ज पर गाना गाया जिसके बोल थेः "इएफएल के रशियन पढईया सबके दीवाना बनवले बा"।
इस तरह के आयोजनों को देख कर मन को थोड़ा सुकून मिलता है कि चलो शिक्षक और विद्यार्थी का रिस्ता अभी पूरी तरह दूसरे काम-काजी सम्बंधों की तरह रुखा-सुखा यानि प्रोफेसनल नहीं हुआ है कि अभी भी इसमें भावनाओं की नमी बाकी है।
Monday, April 11, 2011
तेरे साये में...
हैदराबाद में आने के बाद गुरु घर की सेवा करने के खूब अवसर मिले जो दिल्ली में काफी पास होते हुए भी संभव न हो सका। यहाँ आने के बाद ही सेवा और साधना ठीक से हो सकी और तभी गुरु के उस महान ज्ञान को थोड़ा बहुत समझ सका हूँ। अब तो बस यही प्रार्थना करता हूँ किः
तुम ऐसे ही सेवा के अवसर
उपलब्ध कराते रहना प्रभु
कि मैं तेरे समीप
रौशनी में रहना चाहता हूँ
कि मैं फिर पलटकर
उन अंधेरी गलियों में
जाना नहीं चाहता
फिर-फिर जब
ये मुझको खुद में समेटने लगे
जब खुद को भूल
मैं इनकी ओर बढ़ने लगुँ
इक खबर बस भिजवा देना
जरा याद दिला देना
Saturday, April 9, 2011
गाँव की पार्ट टाइम नौकरी...
घर के सामने के आम के पेंड़ की यह डाल सूख गई थी सो हमने उसे काट देने की सोची। सही में भी कुल्हाड़ियां चलाईं थीं पर यह तस्वीर तो सिर्फ तस्वीर खिंचवाने के उद्देश्य से पोज ले कर खिंची गई थी। लकड़ी काटते हुए फोटो खिंचवाना अब बचकानी हरकत सी लगती है। अब खिंचवा ही लिया है तो चलो चिपका देते हैं ब्लॉग पर।
गाँव जा कर पार्ट टाइम में ऐसे ही दूसरे बहुत से काम करते हुए खूब मजा आता है। अच्छी तरह समझता हूँ कि अगर फूल टाइम यही करना पड़े तो सारी हेकड़ी निकल जाएगी।
गाँव जा कर पार्ट टाइम में ऐसे ही दूसरे बहुत से काम करते हुए खूब मजा आता है। अच्छी तरह समझता हूँ कि अगर फूल टाइम यही करना पड़े तो सारी हेकड़ी निकल जाएगी।
Friday, April 8, 2011
Thursday, April 7, 2011
Wednesday, April 6, 2011
Tuesday, April 5, 2011
हो कभी न उनके मंसूबे पूरे
चाहते हैं जो कि जहाँ में
ना कोई जिन्दा बचे........
साभार दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान
चाहते हैं जो कि जहाँ में
ना कोई जिन्दा बचे........
साभार दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान
Thursday, March 31, 2011
Wednesday, February 2, 2011
मॉस्को से आए हिन्दी के छात्रों से मिले भारत में रुसी पढ़ने वाले छात्र
रुसी विद्यार्थियों के साथ निश्चित मुलाकात सम्पन्न हुई। कार्यक्रम की शुरुआत उन्होने मशहूर रुसी गाने "कात्युशा" के साथ किया। फिर अपना संक्षिप्त परिचय देने के उपरान्त उन्होने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए क्वीज प्रोग्राम का आयोजन किया। क्वीज की शुरुआत आसान सवालों से हुई जैसेः रूस के राष्ट्रपति का नाम, रूसी शहरों और व्यंजनों के नाम पर बाद में रुस के प्रख्यात बैले डांसर का नाम बताने और रुसी साम्राज्य की शुरुआत किस सदी से मानी जाती है जैसे अपेक्षाकृत मुश्किल सवाल भी पूछे। विद्यार्थियों ने पूरे उत्साह के साथ इसमें हिस्सा लिया और जम कर रुसी मेहमानों द्वारा लाए गए उपहार बटोरे। बाद में रुसी मेहमानों ने हिन्दी/उर्दु की कुछ कविताओं का पाठ किया जिसमें फैज अहमद फैज और केदारनाथ सिंह की कविताओं के पाठ पर खुब तालियां बजीं। उन्होने हमारे विद्यार्थियों के अनुरोध पर "कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है" फिल्मी गाना भी गाया। जवाब में विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने भी प्रख्यात रुसी कवि अलेक्सांद्र सेर्गेविच पुश्किन की "Я вас любил, Я помню чудное мгновенье" आदि कविताओं का पाठ किया।
अंत में विद्यार्थियों ने एक-दूसरे से इ-मेल पतों का आदान-प्रदान किया जो निश्चय ही दोनों ओर के विद्यार्थियों के लिए भविष्य में अन्य सुखद अवसर उपलब्ध कराने में सहयोगी होगा।
Monday, January 31, 2011
बनकटा-झांसी-इटारसी-हैदराबाद
जाड़े की छुट्टियां समाप्त हो रहीं थीं और अब वापस काम पर हैदराबाद लौटने का समय था। हमारे यहाँ हैदराबाद के लिए सीधी ट्रेन एक ही हैः गोरखपुर-सिकंदराबाद, जिसमें टिकट नहीं मिल सका था। सो मैने गाँव से झांसी आने का और फिर वहाँ दिल्ली से आने वाली किसी ट्रेन से आगे हैदराबाद तक की यात्रा करने का फैसला किया। ठीक एक दिन पहले भटनी जाकर मैने बरौनी-ग्वालियर एक्सप्रेस में झांसी तक की सीट बुक करा ली। घर आकर बतायाः
- झांसी एक्सप्रेस में टिकट बुक कराया है। (जो बनकटा स्टेशन रात को एक बजे पहुँचती है)
सुन कर सारे परेशान कि इतनी रात को स्टेशन कैसे जाना होगा। स्टेशन हमारे गाँव से तीन किलोमिटर की दूरी पर है। दिसम्बर का महीना था और ठंड कड़ाके की पड़ ही रही थी।
पापा ने कहा - कोई बात नहीं मैं पहुँचा दुंगा।
पापा का ठंड में रात को बाहर जाना और फिर अकेले लौटना। मुझे यह बात जंच नहीं रही थी, कहीं कोई परेशानी हो जाए।
अम्मा तैयार हो गईं चलने के लिए।
दिन रहता तो दादा चल पड़ते पर रात को उनको दिखाई कम देता है सो वो कहीं निकलते ही नहीं। अब क्या हो? मैने फैसला किया, क्यों सबको परेशान किया जाय। सोचा - मैं ही शाम की किसी ट्रेन से सीवान या देवरिया चला जाता हूँ और वहाँ से ट्रेन पकड़ लुंगा। पर सच पुछिए तो मेरी इच्छा सीवान या देवरिया जाने की नहीं थी। ट्रेनों के लेट होने पर बनकटा से तो लौटा जा सकता था पर सिवान या देवरिया से नहीं। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि तभी हमारे रिस्तेदार पंचा भईया का फोन आया कि वो गन्ने से लदा ट्रेक्टर लेकर प्रतापपुर गन्ना मिल पर जा रहे हैं और रात को हमारे यहां आएंगे। तो इस तरह मेरे स्टेशन तक पहुंचने की परेशानी हल हुई। ये तय हुआ कि पंचा भईया अपनी मोटरसाइकल से मुझे स्टेशन तक छोड़ देंगे। ना ना कहते हुए भी अम्मा ने 15-20 सत्तु की लिट्टी और 30-40 खस्ता (खजुर) रास्ते के लिए बांध दिया।
पापा को जब मौका मिलता तो एक ही बात कहते, "इस ट्रेन का टाइम ठीक नहीं है बेकार ही इसमे टिकट लिया।"
अब उनको कौन समझाए, कोई शौकिया तो लिया नहीं है। आठ बजते-बजते हम सारी तैयारी कर खा-पीकर बिस्तर पर आ गए। सोचा थोड़ा सो लुंगा, फिर तो जगना ही है पर अम्मा से बात होती रही। पंचा भईया 9.00 बजे आ गए और वो भी आराम करने चले गए। 12.00 बजे हम उठे और फटा-फट तैयार हो गए। रात को जाने का एक फायदा हुआ कि अबकी बार अम्मा के आंसु नहीं दिखे। अब कोई कितना भी दिल कड़ा कर ले माँ की आँखों में आंसु देख मन भावुक तो हो ही जाता है। और ऐसे समय में हर बार मुझे रुसी लेखक शुक्शिन जरुर याद आते हैं। अपनी एक कहानी में उन्होने गाँव छोड़ शहर मे कमाने जा रहे बेटे से माँ के बिछोह का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। मुझे फिक्र इस बात की थी कि आधी रात को अंधेरे सुनसान स्टेशन पर ऐसी कड़कड़ाती ठंड में समय कैसे कटेगा। सोच रहा था स्टेशन मास्टर से रिक्वेस्ट कर उसके कमरे में घुस जाउंगा और जो उसने घुसने न दिया तो। इसी उधेड़बुन में हम स्टेशन पहुँच गए। पंचा भईया से मैने घर लौट जाने को कहा पर वे न माने कहा ,"चलो स्टेशन तक चलुंगा।" मैं शॉर्टकट से पैदल लाइन पार कर स्टेशन पर आ गया और वो ढाले की तरफ चले गए चुंकि रात को सुनसान में गाड़ी लाइन के इस तरफ छोड़ना ठीक न जान पड़ा। मैने स्टेशन पर पहुंचकर गाड़ी की पोजीशन पूछी तो गाड़ी साढ़े तीन घंटे लेट। लो जिसका डर था वही हुआ।
इधर हरे रामा हरे कृष्णा की धुन से वातावरण गुंजायमान था। स्टेशन के ठीक पीछे बने मंदिर पर अखण्ड कीर्तन का आयोजन पिछले कुछ दिनों से चल रहा था। मथुरा से कोई बाबा आए थे। उन्हींके देख रेख में कार्यक्रम का आयोजन हुआ था। अभी दो दिन पहले ही अफवाह उड़ी थी कि बाबा चंदा का पैसा लेकर भाग गए और आयोजक उनको तालाश रहे हैं पर यहां ऐसा कुछ नहीं था। कीर्तन मध्य रात्रि में भी अपने जोर पर था। ट्रेन तो लेट थी ही तथा अंधेरे और ठंड में स्टेशन की बेंच पर बैठने का कोई मतलब नहीं था सो कीर्तन स्थल की ओर अनायास ही पैर बढ़ गए। वहां जेनरेटर चल रहा था और मरकरी(ट़युब लाइट) और बल्ब रौशन थे। पास में एक बड़े पेंड़ का तना अलाव के रुप में जल रहा था सो गर्मी भी थी। कुर्सिया अलाव के आस-पास रखीं थीं। एक कुर्सी पर एक साहब बैठे थे जो आयोजकों में से एक जान पड़ते थे। अलाव के समीप ही एक जने लम्बे पड़े थे जो पता चला कीर्तन मंडली के सदस्य थे और अपनी बारी आने तक आराम फरमा रहे थे। एक महाशय उकड़ु बने बैठे थे जो बाद में दिमागी रुप से थोड़ा कमजोर मालूम हुए। फिर बात-चीत के दौरान पता चला कि उनकी पत्नी पर उनके पिता ने कब्जा किया हुआ है सो वो रात को घर नहीं जाते। ऐसे ही रतजगा करते हैं। बगल में सामियाने में मंडप सजा था, विभिन्न देवी-देवताओं की तस्वीरे सजी थी और समीप ही कीर्तन मंडली जमी थी। मंडली में एक ढोलकिया, एक गवैया झाल के साथ और एक साथ देने वाले सज्जन थे झाल झाल लिए हुए। मैं भी अपना सामान रख एक कुर्सी पर बैठ गया। पंचा भईया आकर देख गए। वह संतुष्ट थे कि ऐसे माहौल में रात तो देखते-देखते कट जाएगी। मैने भी घर फोन कर बता दिया कि यहां सारी सुविधा मौजूद है और आप सभी लोग बगैर चिन्ता के आराम से सो जाएं। पूरे लगन और ईमानदारी के साथ एक से बढ़कर एक फिल्मी धुनों पर कीर्तन गाए जाते रहे और साथ में चीलम के दौर भी चलते रहे। एक दो बार गवैये बदले। बीच में मैं जाकर गाड़ी का हाल-पता ले आता। एक चिन्ता मुझे और थी कि रात को ट्रेन के दरवाजे तो अन्दर से लोगों ने बंद कर रखे होंगे। अपनी बॉगी मैं कैसे पहचानुंगा। ट्रेन एक-दो मिनट से ज्यादा तो रुकने से रही। खैर ट्रेन आई और यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि कंडक्टर साहब ने खुद दरवाजा खोलकर बाहर से आने वाली सवारी का स्वागत किया। फटाफट उन्होने टिकट चेक किया और अटेंडेंट ने बिस्तर थमा दिया। अंदर माहौल बिल्कुल बढ़िया था, डिब्बा खुब गर्म था। मैने भी तुरन्त सीट ढुंढ बिस्तर बिछाया और लेट गया।
झांसी एक्सप्रेस में पैन्ट्री कार नहीं होती सो लोग दिन के दस बजते-बजते छटपाटाने लगे। कोई कहता-पहली बार इस ट्रेन में चढ़ा हूँ। पता रहता तो इसमें टिकट ही नहीं लेता। कोई उसे महा वाहयात गाड़ी बता रहा था तो कोई अपनी मजबूरी का रोना रो रहा था। अम्मा की दी लीट्टियाँ मेरे साथ थीं सो खाने की चिन्ता तो मुझे बिल्कुल भी नहीं थी। खुद भी खाया और अगल-बगल के यात्रियों को भी दिया। रास्ता अच्छा कट रहा था पर झांसी से आगे कैसे जाना है इसकी फिक्र तो लगी ही थी। मैने लखनउ में अपने दोस्त पुष्प रंजन भाई को फोन कर पूछा कि झांसी में कौन सी गाड़ी मिलेगी हैदराबाद के लिए। उन्होने कुछ ट्रेनों के नाम गिनाए पर यहां असल मुद्दा तो ये था कि कुहासे के कारण सारी ट्रेने लेट चल रहीं थीं। कौन सी ट्रेन कब कहां मिलेगी यह तो अब भाग्य भरोसे ही था। सो ट्रेन की चिन्ता मन से निकाल दी और फैसला किया कि अब तो झांसी जाकर जो होगा देखा जाएगा। मैं अपने एक साथी यात्री के साथ बातों में लग गया। पास की सीट पर बैठे एक सज्जन अपनी बहु की बुराई करने में लगे हुए थे। बहु की निंदा के करने के साथ-साथ वह वर्तमान में जीवन शैली, शिक्षा पद्धति, पारिवारिक मुल्यों जैसी तमाम अन्य सामाजिक संरचनाओं मे व्याप्त निरन्तर ह्रास की स्थिति का रोना भी रो रहे थे। देख-सुन कर लग रहा था कि वह इससे बहुत आहत हैं। खैर अपना व्यक्तव्य समाप्त कर वह आराम करने चले गए। पास बैठे सहयात्री ने अब मुँह खोला और आनन-फानन ही बहु की बुराईयों के लिए वह उन्हीं महाशय को दोषी ठहराने लगा। कहने लगा, "जरुर कुछ गलती इनकी भी होगी, ताली कोई एक हाथ से बजती है। बहु ढुंढने चलेंगे तो पढ़ी-लिखी, अंग्रेजी बोलने वाली, कमाने वाली की फर्माइश करेंगे और फिर रात को जब तक नींद न लग जाए पाँव दबवाने की तलब होगी तो भला कैसे बात बने।ये हमारी खुद गलती कर दोष दूसरों पर थोंपने की आदत कभी नहीं छूट सकती।"
इधर हरे रामा हरे कृष्णा की धुन से वातावरण गुंजायमान था। स्टेशन के ठीक पीछे बने मंदिर पर अखण्ड कीर्तन का आयोजन पिछले कुछ दिनों से चल रहा था। मथुरा से कोई बाबा आए थे। उन्हींके देख रेख में कार्यक्रम का आयोजन हुआ था। अभी दो दिन पहले ही अफवाह उड़ी थी कि बाबा चंदा का पैसा लेकर भाग गए और आयोजक उनको तालाश रहे हैं पर यहां ऐसा कुछ नहीं था। कीर्तन मध्य रात्रि में भी अपने जोर पर था। ट्रेन तो लेट थी ही तथा अंधेरे और ठंड में स्टेशन की बेंच पर बैठने का कोई मतलब नहीं था सो कीर्तन स्थल की ओर अनायास ही पैर बढ़ गए। वहां जेनरेटर चल रहा था और मरकरी(ट़युब लाइट) और बल्ब रौशन थे। पास में एक बड़े पेंड़ का तना अलाव के रुप में जल रहा था सो गर्मी भी थी। कुर्सिया अलाव के आस-पास रखीं थीं। एक कुर्सी पर एक साहब बैठे थे जो आयोजकों में से एक जान पड़ते थे। अलाव के समीप ही एक जने लम्बे पड़े थे जो पता चला कीर्तन मंडली के सदस्य थे और अपनी बारी आने तक आराम फरमा रहे थे। एक महाशय उकड़ु बने बैठे थे जो बाद में दिमागी रुप से थोड़ा कमजोर मालूम हुए। फिर बात-चीत के दौरान पता चला कि उनकी पत्नी पर उनके पिता ने कब्जा किया हुआ है सो वो रात को घर नहीं जाते। ऐसे ही रतजगा करते हैं। बगल में सामियाने में मंडप सजा था, विभिन्न देवी-देवताओं की तस्वीरे सजी थी और समीप ही कीर्तन मंडली जमी थी। मंडली में एक ढोलकिया, एक गवैया झाल के साथ और एक साथ देने वाले सज्जन थे झाल झाल लिए हुए। मैं भी अपना सामान रख एक कुर्सी पर बैठ गया। पंचा भईया आकर देख गए। वह संतुष्ट थे कि ऐसे माहौल में रात तो देखते-देखते कट जाएगी। मैने भी घर फोन कर बता दिया कि यहां सारी सुविधा मौजूद है और आप सभी लोग बगैर चिन्ता के आराम से सो जाएं। पूरे लगन और ईमानदारी के साथ एक से बढ़कर एक फिल्मी धुनों पर कीर्तन गाए जाते रहे और साथ में चीलम के दौर भी चलते रहे। एक दो बार गवैये बदले। बीच में मैं जाकर गाड़ी का हाल-पता ले आता। एक चिन्ता मुझे और थी कि रात को ट्रेन के दरवाजे तो अन्दर से लोगों ने बंद कर रखे होंगे। अपनी बॉगी मैं कैसे पहचानुंगा। ट्रेन एक-दो मिनट से ज्यादा तो रुकने से रही। खैर ट्रेन आई और यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि कंडक्टर साहब ने खुद दरवाजा खोलकर बाहर से आने वाली सवारी का स्वागत किया। फटाफट उन्होने टिकट चेक किया और अटेंडेंट ने बिस्तर थमा दिया। अंदर माहौल बिल्कुल बढ़िया था, डिब्बा खुब गर्म था। मैने भी तुरन्त सीट ढुंढ बिस्तर बिछाया और लेट गया।
झांसी एक्सप्रेस में पैन्ट्री कार नहीं होती सो लोग दिन के दस बजते-बजते छटपाटाने लगे। कोई कहता-पहली बार इस ट्रेन में चढ़ा हूँ। पता रहता तो इसमें टिकट ही नहीं लेता। कोई उसे महा वाहयात गाड़ी बता रहा था तो कोई अपनी मजबूरी का रोना रो रहा था। अम्मा की दी लीट्टियाँ मेरे साथ थीं सो खाने की चिन्ता तो मुझे बिल्कुल भी नहीं थी। खुद भी खाया और अगल-बगल के यात्रियों को भी दिया। रास्ता अच्छा कट रहा था पर झांसी से आगे कैसे जाना है इसकी फिक्र तो लगी ही थी। मैने लखनउ में अपने दोस्त पुष्प रंजन भाई को फोन कर पूछा कि झांसी में कौन सी गाड़ी मिलेगी हैदराबाद के लिए। उन्होने कुछ ट्रेनों के नाम गिनाए पर यहां असल मुद्दा तो ये था कि कुहासे के कारण सारी ट्रेने लेट चल रहीं थीं। कौन सी ट्रेन कब कहां मिलेगी यह तो अब भाग्य भरोसे ही था। सो ट्रेन की चिन्ता मन से निकाल दी और फैसला किया कि अब तो झांसी जाकर जो होगा देखा जाएगा। मैं अपने एक साथी यात्री के साथ बातों में लग गया। पास की सीट पर बैठे एक सज्जन अपनी बहु की बुराई करने में लगे हुए थे। बहु की निंदा के करने के साथ-साथ वह वर्तमान में जीवन शैली, शिक्षा पद्धति, पारिवारिक मुल्यों जैसी तमाम अन्य सामाजिक संरचनाओं मे व्याप्त निरन्तर ह्रास की स्थिति का रोना भी रो रहे थे। देख-सुन कर लग रहा था कि वह इससे बहुत आहत हैं। खैर अपना व्यक्तव्य समाप्त कर वह आराम करने चले गए। पास बैठे सहयात्री ने अब मुँह खोला और आनन-फानन ही बहु की बुराईयों के लिए वह उन्हीं महाशय को दोषी ठहराने लगा। कहने लगा, "जरुर कुछ गलती इनकी भी होगी, ताली कोई एक हाथ से बजती है। बहु ढुंढने चलेंगे तो पढ़ी-लिखी, अंग्रेजी बोलने वाली, कमाने वाली की फर्माइश करेंगे और फिर रात को जब तक नींद न लग जाए पाँव दबवाने की तलब होगी तो भला कैसे बात बने।ये हमारी खुद गलती कर दोष दूसरों पर थोंपने की आदत कभी नहीं छूट सकती।"
स्वयं सुधार की चर्चा हो तो आध्यात्म सहज ही उस चर्चा का विषय बन जाता है। पता चला वह किसी योग संस्थान से जुड़े थे। मैने अपने दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान का परिचय दिया और चुंकि वह भोपाल के रहने वाले थे सो उनसे संस्थान के भोपाल स्थित कार्यालय पर संपर्क करने का आग्रह किया।
आखिर गाड़ी रात के दस बजे झांसी पहुंची। मैंने उतरते ही हैदराबाद जाने वाली गाड़ीयों के विषय में पूछ-ताछ की। सारी गाड़ियां लेट थीं और अगले दिन दोपहर बारह बजे तक हैदराबाद के लेए कोई सीधी गाड़ी नहीं थी। बड़ी मुसीबत। पास ही खड़े कुछ लोग जो भी गाड़ी मिले उससे आगे यात्रा जारी रखने की बात कर रहे थे। एक सज्जन से मैने पुछा तो उन्होने, मुम्बई जाने वाली कोई भी गाड़ी पकड़ इटारसी चले जाने का सुझाव दिया और फिर वहां से हैदराबाद के लिए बनारस की तरफ से आने वाली गाड़ियों के मिल जाने की बात बताई। बात मुझे अच्छी लगी और वैसे भी 12-14 घंटे झांसी स्टेशन पर काटने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। अंततः मैने काउन्टर से हैदराबाद तक के लिए साधारण श्रेणी का टिकट लिया। सोचा रास्ते में टी.टी से स्लीपर का टिकट बनवा लुंगा और क्या पता कोई बर्थ भी मिल जाए। तभी पता चला कि बरेली-मुम्बई आने वाली है सो मैं प्लेटफॉर्म की ओर दौड़ पड़ा। वहां एक घंटे के इंतजार के बाद गाड़ी आई। ठंड की चर्चा करने का कोई मतलब नहीं, वह चरम पर थी। ट्रेन में सीट के कोने पर किसी तरह टिक गया। आखिर अम्मा का दिया कम्बल काम आया। चारों तरफ से खुद को लपेटे, मोफलर बांधे टिका रहा। करीब सात घंटे का सफर रहा होगा जो मैने कभी बैठ कर और थक जाता तो टहल कर काटा। सुबह सात बजे के आस-पास इटारसी पहुँचा। तुरन्त बाहर निकलकर पूछा तो पता चला कि पटना-सिकंदराबाद एक्सप्रेस आने वाली है। मन ही मन झांसी में इटारसी चले जाने की सलाह देने वाले सज्जन का धन्यवाद किया। इतनी जल्दी गाड़ी मिल जाने की खबर सुन कर थकान तो वैसे ही गायब हो चुकी थी। भाग कर फिर प्लेटफॉर्म पर आ गया। अब बैठ कर यात्रा करने की हिम्मत नहीं बची थी। प्लैटफॉर्म पर एक टीटी महोदय से बात की तो उन्होने कहा गाड़ी आने दिजिए टिकट बन जाएगा। गाड़ी आई फिर अनुरोध किया इस बार दूसरे टीटी से। अबकि बात बन गई। उन्होने S-7 के 7 नंबर सीट पर जाकर बैठने को कहा। मुझे और क्या चाहिए था। मैं पहुंच गया। सीट पर एक सज्जन पहले से बैठे थे। मैने बता दिया कि टीटी साहब ने भेजा है और एक तरफ बैठ गया। करीब दो घंटे बाद टीटी ने आकर पेनाल्टी लेकर मेरा इटारसी से हैदराबाद तक का स्लीपर का टिकट बना दिया और नागपुर के बाद उसी डिब्बे के 37 नम्बर सीट पर चले जाने को कहा। देखते ही देखते आसमान से बादल गायब होते गए, ठंड का अहसास भी जाता रहा और आसमान में सूर्य अपनी तेज चमक बिखेरता नजर आया। यह इस बात का प्रतीक था कि अब मैं उत्तर की सीमा लांघ दक्षिण की ओर बढ़ रहा था। नागपुर में मैं उक्त सीट पर चला गया। अब मेरे आस-पास तेलुगु भाषी लोग थे जो वाराणसी से तीर्थ कर लौट रहे थे। वे लोग ताश खेलने में मशगूल थे और मेरे पास अब करने को कुछ नहीं था सिवाय इसके कि थोड़ा लेट लूँ। नींद जोरों की आ रही थी और अब सोने के लिए जगह भी मिल चुकी थी। करीब 12.00 बजे रात को ट्रेन सिकंदराबाद स्टेशन पर पहुँची। बाहर निकल ऑटो लिया और दस मिनट के अंदर अपने फ्लैट पर था। अम्मा के दिए तिल के लड़डु काम आए, खाया और एक बार फिर बिस्तर पर गिर पड़ा।
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